■ त्रिवेणी धाम : हरि और हर का मिलन स्थल
■ त्रिवेणी धाम : हरि और हर का मिलन स्थल
★ जयघोषों से गुंजायमान हुआ संगम क्षेत्र
【प्रणय प्रभात】
मेले हमेशा से हमारी संस्कृति का अंग रहे हैं।जो लोगों को मेल-जोल व स्वस्थ मनोरंजन का अवसर उपलब्ध कराते हैं। इसीलिए मेलों की परम्परा को विकसित और समृद्ध बनाए रखना सभी की साझा जिम्मेदारी है। इस तरह के विचार हम प्रायः मेलों के शुभारंभ के मौके पर नेताओं, अफसरों व धर्म के ठेकेदारों के श्रीमुख से सुनते हैं। जो केवल भाषण साबित होकर रह जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो मेलों की विस्तृत परम्परा और उनके केंद्र आज बेहद विकसित व समृद्ध होते। विशेष रूप से वो आंचलिक व धार्मिक मेले, जो लोक मेले के रूप में किसी न किसी मत, मान्यता या अवधारणा के संवाहक रहे हैं।
इसी श्रृंखला का एक आयोजन है श्री रामेश्वर मेला, जो सृष्टि के दो मूल आधारों के मिलन का केंद्र है और दो राज्यों की संस्कृतियों का अनूठा संगम भी। गौरवशाली राजस्थान और विविधतापूर्ण मध्य प्रदेश की साझा विरासत है त्रिवेणी धाम। जो पुराण-वर्णित चर्मण्यवती (चंबल) बनास नदी में सीप सरिता के प्रत्यक्ष विलय का क्षेत्र है। महात्मा गांधी और लोकनायक जेपी की अस्थियों व भस्मी को प्रवाहित किए जाने के बाद भी सुर्खियों से परे यह धाम धार्मिक महत्ता में भी किसी से पीछे नहीं, मगर उपेक्षा के हाशिए पर सदियां बिता चुका है। जी हां, यह वही त्रिवेणी धाम है जहां भक्ति, मान्यता और विश्वास की धाराओं के बीच श्री हरि (विष्णु) और श्री हर (शिव) का पावन मिलन होता है।
मध्य प्रदेश के सीमावर्ती श्योपुर और राजस्थान के सरहदी सवाई माधोपुर ज़िले इस संगम के दोनों ओर स्थित हैं। जिनके मानपुर और खण्डार क्षेत्र की सीमाएं संगम तट का स्पर्श करती हैं। संगम के इस ओर भगवान श्री रामेश्वर महादेव विराजित हैं तो दूसरी ओर प्रभु श्री चतुर्भुज नाथ जी। नौका में सवार होकर दोनों धामों के दर्शन किए बिना संगम में स्नान का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। यही कारण है कि स्नान, दान व पूजन विधान से जुड़े धार्मिक पर्व पर इस मान्यता का पालन किया जाता है। फिर चाहे वो ग्रहण-काल से निवृत्ति का स्नान हो या किसी पुण्य फलदायी माह व अधिमाह का स्नान। सभी पर दोनों प्रदेशों के बीच की संस्कृति आस्थामय परिवेश में इधर से उधर व उधर से इधर का भ्रमण करती है। जिसका सबसे विहंगम और विराट रूप कार्तिक पूर्णिमा पर्व पर दृष्टिगत होता है। जो इस बार भी हुआ। उन्हीं बाधाओं, विकृतियों, विसंगतियों व असुविधाओं के बीच, जो यहां की स्थायी पहचान बन चुकी हैं। शासन और प्रशासन की उपेक्षा व उदासीनता के कारण।
यह अलग बात है कि दोनों ओर के ग्रामीण अंचल तमाम संकटों के बाद भी अपनी आस्था को ज्वार बनाने का कोई अवसर नहीं गंवाते। प्रमाण इस बार की कार्तिक पूर्णिमा पर भी मिला, जब संगम के तट “हर हर गंगे” व “हर हर महादेव” के समवेत स्वरों से गूंजे। सूर्योदय से पहले आरम्भ हुआ श्रद्धा भरी डुबकियों का क्रम सर्दी के थपेड़ों के बावजूद अपराह्न वेला तक चला। इस दौरान दोनों किनारों के आस्था केंद्र दर्शनार्थियों की व्यापक आवा-जाही व उपस्थिति का केंद्र बने रहे। भक्तों ने श्री चतुर्भुज नाथ जी के मंदिर में सुदीर्घकाल से प्रज्ज्वलित “अखंड ज्योति” के दिव्य दर्शन भी किए। माना जाता है कि पितृ-आज्ञा से अपनी माता रेणुका का वध करने के बाद भगवान श्री परशुराम ने प्रायश्चित के लिए इसी स्थान पर वर्षों तक तपस्या की थी।
सारी परम्पराओं के निर्वाह के बीच सुरक्षा के अस्थाई प्रबंध प्रशासन व पुलिस ने इस बार भी किए। जिसकी एक बड़ी वजह संगम क्षेत्र का “घड़ियाल अभ्यारण्य” के दायरे में होना भी है। यही वो कारण भी है जो नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र में सुविधाओं के विकास को ग्रहण लगाता रहा है। सरकारी नाकारापन और कमज़ोर राजनैतिक नेतृत्व दूसरा अहम कारण माना जा सकता है।
प्रदेश सरकार संस्कृति व आस्था के सुपोषण को लेकर गंभीर वादे कितने भी करे, प्रतिबद्ध कतई नहीं है। यही वजह है कि इस धाम पर पर्यटन सुविधा के विकास से जुड़े सियासी व चुनावी संकल्प आज तक झूठे ही साबित हुए हैं। सच के प्रमाण पग-पग पर बिखरे पड़े हैं। जो विडंबना भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी। ईश्वर नौकरशाही व नेतागिरी को सद्बुद्धि दे। इसके लिए बस प्रार्थना ही की जा सकती है।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)