■ जीवन दर्शन…
#प्रेरक_प्रसंग
■ समझो! अभी भी समय है……!
【प्रणय प्रभात】
एक बार जीवन मे ठहराव आए तो हम उपासना करें। बाधाएं समाप्त हों तो धर्म-कर्म में सक्रिय हों। तमाम कामों से फुर्सत मिल जाए तो समाज के लिए कुछ करें। यह वो भाव हैं जो प्रायः सभी के मस्तिष्क में उमड़ते रहते हैं। इसी ऊहा-पोह में जीवन का बड़ा व अहम भाग समाप्त हो जाता है। हम इसी मनोभाव के साथ भक्ति व सेवा के मार्ग से दूर बने रहते हैं। जिसका पछतावा जीवन के अंतिम दौर में हमे होता है।
क्या हमें जीवन के सामान्य होने, परिस्थितियों के अनुकूल होने की प्रतीक्षा इसी सोच के साथ करनी चाहिए? क्या इस तरह के बहानो की आड़ में मानव जीवन के मूल उद्देश्य से भटकना सही है? इन सवालों को लेकर चिंतन-मनन आज की आवश्यकता है। जो इस तरह की सोच के साथ जीवन के अनमोल पल गंवाते चले जा रहे हैं, वे अपने जीवन के साथ कतई न्याय नहीं कर रहे। इसी बात को समझाने का एक छोटा सा प्रयास आज के इस प्रसंग के माध्यम से कर रहा हूँ। शायद आपको अपनी सोच का लोच समझ आ सके।
एक संत कई महीनों से नदी के तट पर बैठे थे। एक दिन किसी दर्शनार्थी ने उनसे पूछा कि-
“आप इतने लंबे समय से नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं.?”
संत ने सहज मुस्कान के साथ उत्तर देते हुए कहा-
“इस नदी का पूरा जल बह जाने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ बस।”
संत के जवाब से हैरान दर्शनार्थी ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा कि-
“प्रभु! यह कैसे संभव हो सकता है? नदी तो लगातार बहती ही रहनी है। उसका सारा पानी अगर बह भी जाएगा तो, उससे आप को क्या लाभ होगा…?”
संत ने उसकी जिज्ञासा को समझते हुए प्रत्युत्तर में कहा कि-
“मुझे नदी के उस पार जाना है। जब सारा जल बह जाएगा तब मैं पैदल चल कर आसानी से उस पार पहुंच जाऊँगा।”
इस जवाब से और हैरत में आए दर्शनार्थी ने संत को पागल समझ लिया। उसने अपना आपा खोते हुए कहा कि-
“क्या आप पागल हैं, जो नासमझ जैसी बात कर रहे हैं। ऐसा तो कभी संभव हो ही नही सकता।”
उसकी नादानी को समझ चुके संत तनिक विचलित नहीं हुए। उन्होंने पूर्ववत मुस्कुराते हुए कहा कि-
“मैंने यह सबक़ आप जैसे सांसारिक लोगों को देख कर ही सीखा है। जो हमेशा सोचते रहते हैं कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं तो आगे कुछ किया जाए। जीवन मे कुछ शांति मिले। सारे काम व झंझट खत्म हो जाएं तो मंत्र जाप, सेवा-पूजा, साधना, भजन, सत्कार्य, सत्संग किया जाए।”
संत के इस उत्तर से दर्शनार्थी पूरी तरह पानी-पानी हो गया। उसने लज्जित होते हुए संत से अपनी धृष्टता के लिए क्षमा भी मांगी। अब उसे जीवन की आपा-धापी के बीच ईश्वर और शुभ कार्यों से विमुखता का सत्य समझ आ चुका था।
स्मरण रहे कि हमारा जीवन भी एक सतत प्रवाहित नदी के समान है। यदि जीवन मे हम भी ऐसी ही बेतुकी आशा लगाए बैठे रहें, तो हम अपनी यह भूल कभी नहीं सुधार सकेंगे। आशा है कि संत श्री का उत्तर और उसके पीछे का ज्ञान आप तक भी इस प्रसंग के माध्यम से पहुंच चुका होगा। आप अपने जीवन की नई व पावन शुरुआत आज नहीं बल्कि अभी से करने का पुनीत संकल्प लेंगे।
★प्रणय प्रभात★
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