■ जवाब दें ठेकेदार…!!
■ वृद्धाश्रम में मातृ-पितृ पूजा : आस्था या आडम्बर…?
★ धर्म-संस्कृति पर मख़ौल का एक प्रहार
【प्रणय प्रभात】
पाखण्ड के तमाम रूप हैं। यह बेनागा किसी न किसी रूप में सामने आता है। जैसे कि आज एक बार फिर आया। केवल एक पश्चिमी दिवस के विरोध के नाम पर। मंशा केवल विरोध के लिए विरोध करने की। अरमान सियासी और फ़रमान सत्ता का। नौकरशाह जा पहुंचे मातृ-पितृ पूजन दिवस मनाने। वो भी अपने माँ-बाप नहीं उनके बीच जो अपनी औलादों की उपेक्षा का दंश भोग रहे हैं। मतलब, मातृ-पितृ पूजन एक वृद्धाश्रम में। वृद्धाश्रम, जिसे मानवीय समाज के संवेदनहीन चेहरे पर एक कलंक कहा जा सकता है।
साल में एक दिन निराश्रित व तिरस्कृत वृद्धों की पूजा। वो भी भारत जैसे देश में। जहां माता-पिता को देवतुल्य माना जाता है। क्या यह पाखण्ड नहीं? इस तरह के आडंबरों के बजाय ऐसे कृत्यों के ख़िलाफ़ कड़े विधान क्यों नहीं बनाती सरकार? आख़िर क्यों पनप रही है वृद्धाश्रम और अनाथाश्रम जैसी संस्थाओं की श्रंखला। जो भद्र समाज के मुंह पर बदनुमा दाग हैं। सिर्फ़ सरकारी मदों में सियासत के चरणचट्टों की सेंधमारी के अड्डे।
सरकार और प्रशासन का पहला दायित्व बुजुर्गों को स्थायी सम्मान दिलाना होना चाहिए। ना कि इस तरह के पाखण्ड को एक परिपाटी बनाना। क्या यह ज़रूरी नहीं कि पहले औलादों को अपने जन्मदाताओं व पालनहारों के बेहतर बुढापे के प्रति जवाबदेह बनाया जाए? क्या यह ज़रूरी नहीं कि कृशकाय बुजुर्गों को केवल उनके विधिक अधिकारों से अवगत कराने के बजाय उन्हें सरकारी और वैधानिक संरक्षण दिया जाए?
महामारी बनती एक बड़ी सामाजिक बीमारी का स्थाई हल ऐसे प्रयोग से नहीं उपचार की इच्छाशक्ति से ही सम्भव है। क्या इतनी सी बात देश को पुनः विश्वगुरु बनाने का दावा करती आडम्बरी सरकारों को समझ नहीं आती। इस तरह के प्रदर्शन वस्तुतः धर्म-संस्कृति की मूल भावना के साथ भी मख़ौल है। सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या ख़ुद को धर्म की ठेकेदार समझने वाली पार्टी “पूजा पद्धति व महत्व” को समझती है?
अनपढ़ और गंवार कहलाने वाले भी पूजा के तरीक़ों को ज़रूर जानते होंगे। सर्वविदित है कि एक धातु, मिट्टी या पत्थर से बनी प्रतिमा या काग़ज़ पर अंकित आकृति को पूजने के भी तमाम नियम हैं। जिनमें उचित स्थान, दशा, दिशा व स्थिति सबका ध्यान रखा जाता है। प्रतिमा या चित्र को एक दिन पूज कर नाले के हवाले नहीं किया जाता। पूजन के लिए प्रतिमा व चित्र तक को विधिवत विराजित, स्थापित व प्रतिष्ठित किया जाता है। परखा जाता है कि वे खंडित या विकृत तो नहीं। क्या यह मानदंड हाड़-मांस के जीवंत व जागृत देवों (बुजुर्गों) पर प्रभावी नहीं होने चाहिएं, जो हालातों की मार से विकृत व अपनों के प्रहार से खंडित हैं? ख़ुद को महिमा-मंडित करने के लिए एक दिन का आडम्बर करने वालों को समझना होगा कि बुजुर्गों को पहले उनके उचित आसन या स्थान पर विराजमान कराना आवश्यक है। ताकि भारत जैसे धार्मिक व सांस्कृतिक राष्ट्र में इस तरह के आश्रमों के अस्तित्व की कतई आवश्यकता न पड़े। कोई बुज़ुर्ग अपने उस घर से अलग होकर जीवन की साँझ बिताने पर विवश न हो, जिसे बनाने व सजाने में उसने अपनी सारी उम्र खपा दी। यदि ऐसा करना मुमकिन नहीं तो सत्ता व संगठनों को यह सच स्वीकार लेना चाहिए कि सारा खेल संसाधनों की बंदरबांट का है। जो दानवी चेहरे पर मानवीय मुखौटा चढ़ा लेने से अधिक कुछ भी नहीं।।
★संपादक★
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)