■ गाली का जवाब कविता-
म#कविता-
■ एक मदांध मूर्ख के नाम
【प्रणय प्रभात】
वो एक काग हो सकता है,
जो गाली दे अमराई को।
मंडूक कूप का क्या जाने,
सागर वाली गहराई को?
बंदर के हाथ उस्तरा ज्यों, ।तेरे हाथों अधिकार लगे,
वाणी में विष का वास और
अभिमानयुक्त व्यवहार लगे।
तू उच्च वंश का महाअधम,
इठलाया सा, बौराया सा,
मरकट के जैसा उन्मादी,
छत-छत भटके झुंझलाया सा।
तू राजा भोज नहीं है जो,
दुनिया को गंगू समझ रहा,
जो यायावर हैं जन्मजात,
उन सबको पंगू समझ रहा।
वामन सा रूप दिखाया है,
दर्शन विराट का शेष अभी,
तू सार समझ ले और सुधर,
कहने को बहुत विशेष अभी।
जो चरण-वंदना करते हों,
तू पाल-पोस वो चाटुकार,
कानों का कच्चा देता है,
चुगली-खोरों को ही दुलार।
दुर्वासा से बच कर रहना,
जीवन में श्राप न पाना हो,
इतना सा परिचय बहुत अगर,
तुझ जैसे को समझाना हो।
ऐ बरसाती नाले ! सुन ले,
हम घाट नहीं तट-बंध स्वयं।
तू केवल उप अध्याय एक, हम पूरे ललित निबंध स्वयं।।
#आत्मकथ्य-
बड़े नाम और ऊंचे कुल वाला आदमी भी छोटा और नीच हो सकता है। ज़रूरी नहीं कि “भगवान” नाम रख देने भर से कोई शैतान भगवान हो जाए। बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि वो ख़ुद को इंसान भी साबित कर सके। एक ऐसे ही अभद्र व अशिष्ट आदमी पर प्रहार है मेरी आज की कविता। चमचे, चापलूस और मुखबिर, जहाँ चाहें, जिसे चाहें भेजकर अपना धर्म निभा सकते हैं। खानदानी रचनाकार हूँ। जानता हूँ कि गाली का जवाब गाली नहीं हो सकता। कविता हो सकती है।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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