■ खरी-खरी / प्रसंगवश
#मध्यप्रदेश
सफ़ेद झूठ है व्हीआईपी कल्चर का ख़ात्मा
【प्रणय प्रभात】
एक अरसा पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधान सेवक की हैसियत से राजनैतिक सुधार की पहल की थी। जिसके तहत देश भर में “व्ही आईपी कल्चर” के ख़ात्मे का खुला शंखनाद किया गया था। बदहाल प्रदेशों की बेहाल जनता ने इस ऐलान को सिर-माथे लिया था। लगा था कि “सियासी रण” में “आम जन के मरण” का दौर हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा। विडम्बना की बात रही कि सियासत की सादगी का यह दावा भी “हवा में कपूर” साबित होकर रह गया। गाड़ियों के हूटर व सायरन फिर से हवाओं में गूंजने लगे। एक माननीय के सम्मान में दर्ज़नो वाहनों के काफ़िले सड़कों पर दिखने लगे। सुरक्षा व एहतियात के नाम पर आम जनता को आतंकी, नक्सली माना जाने लगा। यह सब उन राज्यों में ज़्यादा नज़र आया जहां क़ानून-व्यवस्था पुख़्ता और बेहतर होने के ढिंढोरे सबसे ज़्यादा पिटे। व्हीआईपी मूवमेंट के नाम पर सुरक्षा के हवाले से सारी सीमाएं लांघी जाने लगीं। सत्ता, संगठन और सियासत ने अपने ही दावों को झूठा साबित करते हुए बता दिया कि सुरक्षा व क़ानून व्यवस्था का सच क्या है। व्हीआईपी कल्चर के चार-दिनी ख़ात्मे से निहाल जनता फिर बेहाल दिखाई देने लगी। झूठे झमेलों और तामझाम के मकड़जाल “सियासी सीलन” भरे माहौल में आए दिन की बात बन गए। इन सब कारनामों में भी मध्यप्रदेश अव्वल रहा, जो किसी राज्य के लिए प्रेरणा का एक दीप नहीं जला पाया। दीगर राज्यों के नवाचारों की नक़ल का आदी ज़रूर बनता चला गया। आलम यह है कि राहत चाहती जनता को आहत करने का सिलसिला चरम पर आ पहुंचा है। जो इस चुनावी साल में और भी मारक स्तर पर पहुंचना तय है। काश, वाहनों से लाल बत्ती हटवा कर एक कल्चर के ख़ात्मे का ख़वाब संजोने वाले प्रधान सेवक जी को समझ आ जाए कि नेताओं की खोपड़ी में फिट लाल बत्ती को हटाना उनके लिए भी नामुमकिन सा है।
जीती-जागती मिसाल प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इन्दौर के रास्ते सामने आईं। जहां बीते 08 से 10 जनवरी तक आयोजित “प्रवासी भारतीय सम्मेलन” के बहाने “क़ानून-ब्यवस्था” का भौंडा प्रदर्शन मुसीबत का सबब बन गया। अपने वतन लौटे भारत-वंशियों की सुरक्षा के नाम पर ऐसे चक्रव्यूह रचे गए, जिसमें आम जनजीवन “असहाय अभिमन्यु” की तरह कसमसाता प्रतीत हुआ। ऐसा आभास कराया गया मानो इंदौर एक जीता-जागता नगर न होकर “कूनो नेशनल पार्क” हो। कुल तीन दिनों के लिए अपनों के बीच आए अपनों को सुरक्षा के नाम पर अलग-थलग करने का का बेजा प्रयास जाने-अंजाने यह सिद्ध करने वाला हो गया कि सूबे के हालात कतई सामान्य नहीं हैं। सत्ताधीशों की चिरौरी के चक्कर में घनचक्कर प्रशासन और पुलिस ने वही सब किया, जिसकी उससे उम्मीद थी। सुरक्षा के नाम पर आयोजन क्षेत्र के चारों ओर कई वर्ग किमी तक ऐसे बंदोबस्त किए गए मानो आयोजन पर आतंकी साए का अलर्ट जारी हुआ हो। सभी मेहमानों की बाड़ाबंदी ऐसे हुई मानो वो “अफ्रीकन चीते” हों और आम नागरिक “भारतीय तेंदुए।” एक सांस्कृतिक वैभव वाली नगरी के सत्कार-प्रिय नागरिकों का इससे बड़ा अपमान शायद ही कभी हुआ होगा।
आयोजन पूर्व से आधे महानगर को तंत्र ने अपनी गिरफ़्त में क्या लिया, आम जन की शामत सी आ गई। जगह-जगह बेरीकेटिंग, मार्ग परिवर्तन और कड़ी सुरक्षा ने समूचे क्षेत्र को छावनी बना कर रख दिया। जिसका सीधा असर आम जनता के दैनिक जीवन पर नज़र आया। काम-काज और छोटे-बड़े धंधों सहित नौकरी पर जाने वालों के रास्ते ढाई से तीन गुना लंबे हो गए। एक तरफ़ ईंधन की खपत और खर्च के साथ मानसिक व शारीरिक क्लेश पैदा हो गया, वहीं समय की भी अच्छी-ख़ासी बर्बादी का अहसास लोगों को हुआ। जिनके शहर के अपने रास्ते और चौराहे उनके लिए पराए हो गए। रिश्तेफरी, सैर-सपाटे, कारोबार, रोज़गार या उपचार आदि के लिए इंदौर आने-जाने वालों के बज़ट पूरी तरह चरमरा गए। ऑटो से लेकर कैब तक की सवारी के नाम पर लूट-खसोट को बल मिला। पीएम द्वारा प्रशस्त “आपदा में अवसर” का महामंत्र सेवा-प्रदाताओं ने ऐसे अपनाया, मानो सारी आर्थिक मंदी तीन दिनों में ख़त्म कर लेंगे। पहले दिन सीएम, दूसरे दिन पीएम और तीसरे दिन राष्ट्रपति के कार्यक्रम सुरक्षा प्रबंधों के नाम पर प्रवासी भारतीयों को भी असहज करने वाले रहेजिनकी बैठक व्यवस्था तक का अनुमान आला अफसर नहीं लगा पाए।लगभग 70 देशों के 3500 से अधिक अथितियों में से तमाम को अपने नाम पर हुए कार्यक्रम एलईडी पर देखने पड़े। जो वो अपने घर बैठ कर भी देख और सुन सकते थे। वो भी बिना किसी खर्चे के। उल्लास पर ग्रहण का कारण भी स्थानाभाव से कहीं बढ़ कर वही व्हीआईपी कल्चर बना। स्थानीय व आसपास के अन्य जिलों के लोग चाह कर भी अपने उन परिचितों से नहीं मिल सके, जो लम्बी दूरी तय कर क़रीब आने के बाद भी दूर गगन के चाँद बने रहे। लगा कि राजनेताओं के लिए आयोजन का उद्देश्य अपने आभा मण्डल व संप्रभुता के प्रदर्शन से ज़्यादा कुछ नहीं था। यदि ऐसा नहीं होता तो घरातियों का झुंड उन बारातियों की भीड़ पर भारी नहीं पड़ता, जिनके लिए यह समागम रखा गया था। ऐसे माहौल के बाद इन्दौर को एक दौर बताया जाना भी महज “लॉलीपॉप” सा लगा।
अमूमन इसी तरह का माहौल आए दिन राजधानी भोपाल में नज़र आता है। जहां आए दिन का रूट डायवर्जन आम जनता के जी का जंजाल बनता है। वो भी अधिकांशतः व्हीआईपी मूवमेंट के नाम पर। दिक़्क़तों का सामना यात्रियों व प्रवासियों सहित उन सभी को करना पड़ता है, जिनके लिए शहरी जीवन की आपा-धापी में एक-एक मिनट व एक-एक रुपए की अहमियत है। जिसके साथ बेशर्म सियासत का खिलवाड़ लगातार बढ़ता जा रहा है। लगता है कि आम जनता के लिए पूरा चुनावी साल व्हीआईपी कल्चर की प्रेतछाया की जद में रहेगा। जिसे बीते डेढ़ दशक से अधिक यंत्रणाओं से दो-चार होना पड़ेगा। वजह बनेंगे दिग्गजों के दौरे और राजनीति से प्रेरित नुमाइशी आयोजन। जो बीते कुछ सालों से सभी के “जी का जंजाल” बनते आ रहे हैं तथा आगे भी बनेंगे।
ग़ौरतलब है कि पहले सार्वजनिक स्थलों और वाहनों का अधिग्रहण सामान्य रूप से चुनावी काल मे किया जाता था। जो अब चाहे जब होने लगा है। हरेक दिन किसी न किसी शहर में मुख्यमंत्री के दौरे जारी हैं। ढूंढ-ढूंढ कर निकाले जाने वाले दिवसों के नाम पर सियासी आयोजनों का दौर भी। जिसके लिए भीड़ जुटाना क्षेत्रीय क्षत्रपों की निगरानी में सम्पूर्ण मशीनरी की ज़िम्मेदारी होती है। जो भीड़ की ढुलाई के लिए यात्री से लेकर स्कूली वाहनों तक को अपने कब्ज़े में लेते देर नहीं करती। नतीजतन घण्टे दो घण्टे के कार्यक्रम के चक्कर मे 36 से 48 घण्टे तक आम आवागमन ठप्प हो जाता है। आयोजन वाले दिन अघोषित आपातकाल जैसे हालात निर्मित कर दिए जाते हैं। परेशानी का सामना आम जन को क़दम-क़दम पर करना पड़ता है। इस दौरान झूठी-सच्ची व्यवस्थाओं के नाम पर लाखों के बिल बनना भी आम बात है। जिसमें सबका अपना-अपना हिस्सा तय होता है। कार्यक्रम से पहले छुपाई जाने वाली सारी ज़मीनी विकृतियाँ दो चार घण्टे बाद फिर वजूद में आ जाती हैं। एक्टिव मोड पर नज़र आता समूचा तंत्र आम जन के लिए साइलेंट या एरोप्लेन मोड पर आ जाता है। जो केवल सत्ता और संगठन के सूरमाओं व उनके चहेतों के लिए वाइब्रेट मोड पर होता है। जिनकी अनुशंसा पर उनका वर्तमान और भविष्य तय माना जाता है।
अब जबकि प्रदेश चुनावी साल की शरण मे है, मुसीबतों का नाता हर जगह से चोली-दामन जैसा होना तय है। जिसका प्रभाव धनकुबेरों व रसूखदारों पर पड़े न पड़े, आम जन पर पड़ना ही है। जिसकी शुरुआत साल के पहले हफ़्ते से हो चुकी है। जो चुनाव की अधिसूचना जारी होने तक निरंतर जारी रहनो है। उसके बाद जनजीवन को अस्त-व्यस्त व अभावग्रस्त बनाने की कमान चुनाव आयोग के हाथ मे आ जाएगी। कुल मिलाकर आम जनता के लिए अघोषित आपदाकाल का आगाज़ भी नए साल के साथ हो चुका है। जिसकी जड़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ व्हीआईपी अपसंस्कृति है। जिसका ख़ात्मा सियासत या सरकार के बस में ज़रा भी नहीं। इस संकट से निजात उस दिन मिलेगी, जिस दिन आम जनता ख़ुद मुसीबत से उबरने का मन बना लेगी। वही जनता, जो अभी तक सियासत की नीयत को अपनी नियति मानकर भोगती आ रही है और आज़ादी के अमृतकाल मे भी इल्लत, किल्लत, ज़िल्लत और ज़लालत भोगने पर बाध्य है।