■ कीजिएगा विचार…!!
■ “तंत्र” आख़िर किसका…?
★ “जन” का या फिर “गण” का…?
【प्रणय प्रभात】
“जनतंत्र” यानि “जनता पर जनता के लिए जनता द्वारा किया जाने वाला शासन।”
यही परिभाषा बचपन से पढ़ते आए थे। इस परिभाषा के शब्द और अर्थ कब बदल गए, पता ही नहीं चला। मात्र एक शब्द ने न केवल सारी परिभाषा बदल दी, बल्कि “जनतंत्र” को “गणतंत्र” कर सारे मायने ही बदल डाले। ऐसा अपने आप हुआ या “तंत्र” की खोपड़ी में घुसे “षड्यंत्र” से, यह अलग से शोध का विषय है।
जो कहना चाहता हूँ, उसे बारीक़ी से समझने का प्रयास करें। संभव है कि जो खिन्नता मेरे मन मे उत्पन्न हुई है, वो आपके मन मे भी हो। तब शायद यह एक बड़ा सवाल सभी के दिमाग़ में कुलबुला सके कि “आख़िर क्या किया जाए उस गणतंत्र का…जो अपने लिए है ही नहीं…?”
आप माने या न माने मगर सच वही है जहां तक मेरी सोच पहुंच पाई है। हमारे देश में “जनतंत्र” अब बचा ही नहीं है। उसे तो कुटिल सत्ता-सुंदरी ने कपटी सियासत के साथ मिली-भगत कर “गणतंत्र” बना दिया है। जिसमें समूचा तंत्र “जन” नहीं “गण” के कब्ज़े में नज़र आता है।
“गण” अर्थात “दरबारी”, जिन्हें हम मंत्री या सभासद आदि भी कह सकते हैं। जो “जन” और “गण” को एक मानने की भूल बीते 73 साल (सन 1950) से करते आ रहे हैं, अपना मुग़ालता दूर कर लें। जन और गण दोनों अलग हैं। यदि नहीं होते तो गुरुदेव टैगोर राष्ट्रगीत में दोनों शब्दों का उपयोग क्यों करते?
स्पष्ट है कि अंतर “आम आदमी” और “ख़ास आदमी” वाला है। आम वो जो भाग्य-विधाता चुनने के लिए चार दिन के भगवान बनते हैं। ख़ास वो, जो एक बार चुन लिए जाने के बाद सालों-साल देश की छाती पर मनमानी की मूंग दलते हैं। जिसके हलवे का स्वाद उनकी पीढियां जलवे के साथ लेती हैं। थोड़ा सा तलवे सहलाने और सूंघने, चाटने वाले भी।
कोई महानुभाव इस तार्किक विवेचना और निष्कर्ष से इतर कुछ समझ सके तो मुझ अल्पज्ञ को ज़रूर समझाए। बस ज़रा संयम और मर्यादा के साथ। वो भी 26 जनवरी से पहले, ताकि उत्सव मनाने या न मनाने का निर्णय एक आम नागरिक की हैसियत से ले सकूं और उस शर्मिंदगी से बच सकूं जो हर साल राष्ट्रीय पर्व के आयोजन को देख कर संवेदनशील मन में उपजती है। रेड कार्पेट से गुज़र कर नर्म-मुलायम सोफों और कुर्सियों पर विराजमान “गणों” व भीड़ का हिस्सा बन धक्के खा कर मैदान में बंधी रस्सियों के पार खड़े “जनों” को देख कर। कथित उत्सव की विकृति और विसंगति, जो आज़ादी के अमृत-काल में भी अजर-अमर नज़र आनी तय है।
वर्दी की बेदर्दी के चलते नज़रों को चुभने वाले पारंपरिक नज़ारों को मन मसोस कर देखना नियति क्यों माना जाए…? तथाकथित प्रोटोकॉल के नाम पर अघोषित “आसमान नागरिक संहिता” को ग़ैरत रहन रख कर क्यों सहन किया जाए…? प्रतीक्षा करें देश मे निर्वाचित “गणतंत्र” की जगह निर्वासित “जनतंत्र” के “राज्याभिषेक” की। जो एक राष्ट्रीय महापर्व को समानता व समरसता के मनोरम परिदृश्य दे सके। तब तक टेलिविज़न और चैनल्स हैं ही, सम्नांन से घर बैठ कर मनोरंजन करने के लिए। रहा सवाल आत्म-गौरव की अनुभूति का, तो उसके लिए अपना एक “भारतीय” होना ही पर्याप्त है। बिना किसी प्रदर्शन या पाखण्ड के।।
जय हिंद, वंदे मातरम।।