■ कविता / स्वयं पर…
✍ #कविता
■ जैसा हूँ वैसा दिखता हूँ…..
【प्रणय प्रभात】
“पक्षपात की आस करो मत।
चिंतन का उपहास करो मत।।
मिथ्या नहीं प्रशंसा होगी।
व्यर्थ नहीं अनुशंसा होगी।।
स्वागत, वंदन, मान न होगा।
क़द, पद का यशगान न होगा।।
नहीं कोई विच्छेदन होगा।
अनुनय, विनय निवेदन होगा।।
दावा नहीं, न खंडन होगा।
तनिक न महिमा मंडन होगा।।
पढ़ना चाहो जो मनभाता।
हे जगती के भाग्य विधाता!
कोई और किताब उठाओ।।
मैं जगभाता कब लिखता हूँ?”
👇(02)
“शब्दों की, भावों की ढेरी।
मेरी सोच, क़लम भी मेरी।।
रात, दोपहर, सांझ, सवेरे।
जड़-चैतन्य सभी हैं मेरे।।
शब्दब्रह्म का मैं साधक हूँ।
शब्दनाद का आराधक हूँ।।
मुझ पर नहीं किसी का पहरा।
मनमौजी, यायावर ठहरा।।
मैं कब मनुहारों का आदी?
बात करूंगा सीधी-सादी।।
जो पसंद आते हैं तुझ को।
स्वांग सुहाते कब हैं मुझको।।
अंदर से ले कर बाहर तक।
वैसा हूँ जैसा दिखता हूँ।।
मैं जगभाता कब लिखता हूँ??”