■ कविता / अंतरिक्ष
#कविता
■ अंतरिक्ष सा अंतर
【प्रणय प्रभात】
ये भी मेरा, वो भो मेरा
लोभ, मोह ने डाला डेरा।
खुलें चक्षु तो मिले रोशनी
बंद आँख में घोर अंधेरा।
है रहस्य का एक आवरण
भ्रम की धुंध घनेरी।
पुच्छल ग्रह जैसी आशाएं
लगा रही हैं फेरी।
कुंठाओं के पिंड करोड़ों
लाख वलय दुविधा के।
कई एलियन जिज्ञासा के
सब आदी सुविधा के।
बाहर बिखरी साहूकारी
मन के अन्दर चोर मिले।
अंतरिक्ष सी अंतर इच्छा जिसका ओर न छोर मिले।