■ कल्पनाओं से परे एक अद्भुत रहस्य
#रोचक_रोमांचक_रहस्यपूर्ण
■ आख़िर कैसे…..?
★ 24 साल बाद भी अनसुलझा रहस्य
प्रणय प्रभात】
आज रहस्य व रोमांच से भरपूर एक सच्चा किस्सा सुनाता हूँ आपको। मंशा न अंधविश्वास को बढ़ावा देने की है न इस दिशा में प्रेरित करने की। मन्तव्य केवल उस विज्ञान पर एक छोटा सा प्रश्न-चिह्न लगाना है, जो इस तरह की घटनाओं को नकारने के बाद अपना तर्क रख पाने में प्रायः असफल रहता आया है। बात 1997 की है। मेरा एक अंतरंग मित्र संघर्ष के दौर से गुज़र रहा था। बहुमुखो प्रतिभा का धनी हों कर भी एक अच्छे अवसर की तलाश में। संघर्षों का सिलसिला था कि ख़त्म होने को राज़ी नहीं था। एक दशक के इस संघर्ष के एक साक्षी मित्र के एक परम् हितैषी सज्जन भी रहे। जो उसे अनुजवत स्नेह करते थे और अब भी कर रहे हैं। वे ज्योतिष व शिव अनुष्ठान के विशेषज्ञ हैं। वो भी पूर्णतः अव्यावसायिक व अपार ज्ञान के बावजूद सुर्खियों से कोसों दूर रहने वाले। अपने छोटे भाई जैसे मित्र के अच्छे भविष्य को लेकर चिंतित व निदान को लेकर प्रयासरत। यह सब मेरे भी संज्ञान में है। आगे की कहानी मेरे माध्यम से मेरे मित्र की ज़ुबानी। जो कभी उसने मुझे सुनाई और आज मैं उसे आपके सामने रख रहा हूँ। ध्यान रखिएगा कि यहां “भाई साहब” का सम्बोधन मित्र के हमदर्द के लिए किया जा रहा है।
दिन “शिव प्रदोष” का था। जिसे भगवान भोलेनाथ की विशेष उपासना के लिए जाना जाता है। शिव-उपासक भाई साहब सुबह 11 बजे के आसपास मित्र के कार्यालय पहुंचे। उन्होंने दिवस विशेष की जानकारी देते हुए मित्र से अपना काम रात की जगह देर शाम निपटाने को कहा। पूछने पर बताया कि वे उसके अच्छे भविष्य व स्थायित्व के लिए “रुद्राभिषेक” करना चाहते है। जिसके लिए आज रात एक विशिष्ट महायोग है। मित्र सहर्ष तैयार हो गया। उसका रोमांच तब और बढ़ गया, जब इस अनुष्ठान के लिए शिवालय का नाम बताया गया। भाई साहब ने कहा कि रुद्राभिषेक मध्यरात्रि वेला में श्री भूतेश्वर महादेव मंदिर में होगा। सब प्रबंध वे स्वयं कर लेंगे। बस वो (मित्र) समय पर चलने के लिए अपने वाहन के साथ तैयार रहे। हिदायत इस विषय मे किसी से कोई चर्चा न करने की भी दी गई। मित्र ने हमेशा की तरह आदेश शिरोधार्य करते हुए अपना काम साँझ ढलने से पहले निपटा लिया। घर जाकर स्नानादि से निवृत्त हुआ। स्कूटर में पेटोल कार्यालय से लौटते समय भरा लिया गया था। अब प्रतीक्षा भाई साहब के आने की थी। जिनका घर मित्र के घर से महज चार क़दम की दूरी पर था। वक़्त के पाबंद भाई साहब का आगमन नियत समय पर हुआ। उनके साथ उनकी छोटी बिटिया भी थी। जिसे वे बतौर सहयोगी साथ लाए थे। दोनों के हाथ में थैले थे। जिनमें अनुष्ठान से संबंधित सामग्री होने का आभास मित्र को सहज ही हो चुका था। तीनों स्कूटर पर सवार हुए और अपने गंतव्य की ओर चल दिए।
स्कूटर चलाते मित्र का दिल रास्ते भर जारी रोमांच के कारण तेज़ी से धड़कता रहा। इसकी वजह गांव से दूर स्थित निर्जन शिवालय था। जिसके बारे में एक पत्रकार के नाते मित्र को तमाम बातों व किवदंतियों की पहले से जानकारी थी। प्रत्यक्ष अनुभव का पहला अवसर था, लिहाजा रोमांच का चरम पर होना स्वाभाविक भी था। बताना मुनासिब होगा कि श्री भूतेश्वर महादेव का अत्यंत प्राचीन शिवालय श्योपुर के समीपस्थ ग्राम नागदा में स्थित है। श्री नागेश्वर तथा श्री सिद्धेश्वर महादेव के समकालीन मंदिर यहां से कुछ दूरी पर स्थित हैं। उक्त तीनों शिवालयों का निर्माण सिंधिया साम्राज्य के दौरान “ॐ” के आकार में प्रवाहित “सीप” नदी के सुरम्य तटों पर कराया गया था। तीनों स्थल दिवस काल मे बेहद रमणीय हैं, जो शाम गहराने के साथ वीरानगी की चादर ओढ़ लेते हैं। इनमें सबसे वीरान क्षेत्र श्री भूतेश्वर महादेव मंदिर का है। जहां शाम के बाद जाना तो दूर देखना भी भय का आभास हमेशा से कराता आया है। कालांतर में यहां डेरा जमाने वाले कुछ महात्माओं के आह्वान पर शिवालय का कायाकल्प हो गया है। जो 24 साल पहले बिल्कुल उजाड़ सा हुआ करता था। नाम के अनुरूप कुछ डरावनी मान्यताएं इस स्थल को लेकर पहले भी थीं, जो आज भी जनमानस में बसी हुई हैं। जानकार बुज़ुर्ग बताते आए हैं कि कुछ विशेष दिवसों व तिथियों की रात यहां “शिव-संगत” का स्पष्ट आभास होता है। तरह-तरह की ध्वनियों से लगता है मानो बाबा भूतभावन की सवारी निकल रही हो। दावों के पीछे के सच का बेशक़ कोई जीवंत प्रमाण नहीं है। इसके बाद भी इस क्षेत्र का सम्पूर्ण परिवेश अत्यधिक रहस्यमयी है। जिसका अनुभव समय-समय पर तमाम लोगों को हुआ है। जिनमें एक मेरा मित्र स्वयं है। जो इस कथा का केंद्र भी है। बहरहाल, हम वापस किस्से की ओर लौटते हैं।
चंबल दाहिनी मुख्य नहर के किनारे-किनारे ऊबड़-खाबड़ रास्ते से गुज़र कर स्कूटर रात 8 बजे मंदिर क्षेत्र तक पहुंचा। तीनों सामान के साथ शिवालय में दाख़िल हुए। यहां के चप्पे-चप्पे से बख़ूबी परिचित भाई साहब पास ही लगे हेंडपम्प पर पानी भरने के लिए चले गए। जो विधिवत पूजन के लिए वेशभूषा बदल चुके थे। उनकी लगभग 12/13 बर्षीय बिटिया शिवलिंग के पास बैठ कर पूजन-सामग्री सजा रही थी। वो भी बिना किसी भय के, सहज भाव से। अभिषेक आरंभ होने में वक़्त था। मित्र कौतुहल के साथ सारी तैयारियों को निहार रहा था। मार्च के महीने का आख़िरी सप्ताह था। हवा में अच्छी-ख़ासी ठंडक थी। दूर तक बिखरे अंधकार के बीच केवल शिवालय में 40 या 60 वाट के बल्ब का उजाला था। काली रात की निस्तब्धता को झींगुरों सहित अन्य कीड़े-मकोड़ों की मिली-जुली आवाज़ें लगातार बेध रही थीं। क्रमवार सजाई गई सामग्री का अवलोकन कर भाई साहब कुछ असहज दिखे। पता चला कि सामान में जलहरी (जलपात्र) के रूप में गंगासागर नहीं है। जो सम्भवतः थैले में रखने से रह गया था। किसी एक का श्योपुर आना संभव नही था। बस्ती भी मंदिर से काफ़ी दूर थी। लोहे की दो पुरानी बाल्टियों के अलावा मंदिर में भी कोई पात्र नहीं था। आपात स्थिति में निर्णय लिया गया कि बड़ी बाल्टी पानी से भर कर रखी रहेगी। जबकि छोटी का उपयोग जलाभिषेक के लिए होगा। इस निर्णय के पीछे एक वजह भी थी। एक तो वो बाल्टी छोटी व हल्की थी। दूसरा उसकी दीवार में बना एक बारीक़ सा छिद्र था। जिसमें से पानी का रिसाव एक पतली सी धारा के रूप में हो रहा था। जो शिवलिंग पर अनवरत जलधार गिराने के लिए उपयुक्त लगा।
निर्धारित समय से पूजन विधि का श्रीगणेश हुआ। इससे पहले भाई साहब ने मित्र को आगाह कराया कि वह पूरा ध्यान अनुष्ठान पर केन्द्रित रखे। अभिषेक के दौरान कुछ अलग सा आभास हो तो उसे विचलित हुऐ बिना अनदेखा करे और शांत मन से निर्दिष्ट प्रक्रियाओं का पालन करता रहे। इस समझाइश ने मित्र के कलेजे को और धड़काने का काम किया। अभिषेक आरंभ होने के बाद लगभग तीन घण्टे चला। इस बीच शिवालय रुद्रपाठ के स्वर से गूंजता रहा। मित्र के कान मंत्रोच्चार के बीच बाहरी आवाज़ों पर भी लगे रहे। आधी रात के बाद लगा मानो बहुत दूर कोई बारात सी गुज़र रही हो। कभी यही ध्वनि घण्टे-घड़ियाल की आवाज़ जैसी प्रतीत हुई। हो सकता है, यह सुनी हुई बातों का तात्कालिक मनोप्रभाव रहा हो। अभिषेक की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद तीनों ने वापस श्योपुर की राह पकड़ी और अलसुबह से पहले घर लौट आए।
कुछ समय बाद बात आई-गई हो गई। दिन-दिन कर महीने बीतने लगे। देखते ही देखते लगभग ढाई साल गुज़र गए। मित्र की ज़िंदगी रोज़मर्रा की तरह अपने ढर्रे पर भी नहीं रह पाई। इस अवधि में मित्र को दो संस्थान भी बदलने पड़े। भाई साहब मित्र की स्थिति में अनुकूल के बजाय प्रतिकूल प्रभाव से क्षुब्ध थे। जो कुछ हो रहा था, वो उनकी अपनी सोच से भी अलग था। इसी दौरान उन्हें अपने गुरु-भाई के घर राजस्थान से किसी ऐसे महानुभाव के आगमन की जानकारी मिली, जिन पर किसी ज़िन्द (जिन्न) बाबा की सवारी आती थी। पता चला कि सवारी आने की स्थिति में उनके द्वारा समस्याओं का समाधान भी किया जाता है। भाई साहब ने रोज़ की तरह घर आए मित्र को गुरु-भाई के घर चलने के लिए कहा। दोनों रात 8 बजे के क़रीब नज़दीक रहने वाले गुरु-भाई के घर पहुंचे। जहां छत पर लोगों का अच्छा-ख़ासा जमावड़ा लगा हुआ था। सब विछे हुए फर्शों पर बैठे थे। सबका ध्यान सामने दीवार से सट कर एक गद्दी पर बैठे अधेड़ उम्र के व्यक्ति पर था। जिसे आसपास मौजूद दो लोग एक के बाद एक सिगरेट सुलगा-सुलगा कर दे रहे थे। जिन्हें वो मात्र दो-दो लम्बे कश खींच कर ख़त्म कर रहा था। मित्र के भीड़ में शामिल होने के बाद उस अधेड़ ने लगभग डेढ़ दर्ज़न सिगरेट फूंक डाली। पास हो पड़े कुछ ख़ाली पैकर्ट्स और टोटे बता रहे थे कि यह खेल काफ़ी देर से चल रहा है। अधेड़ की मुख-मुद्रा व हाव-भाव सहित आवाज़ में लगातार बदलाव हो रहा था। रात 9 बजे के बाद जयघोष से पता चला कि सवारी आ चुकी है। बताया गया कि बाबा जिसे ख़ुद बुलाएंगे, वही प्रश्न कर पाएगा। मित्र को अपनी बारी आने का ज़रा भी भरोसा नहीं था। लगभग पौन घण्टे बाद अधेड़ ने भाई साहब को खड़े होने का इशारा किया। भाई साहब ने उठ कर प्रणाम करते हुए मित्र के भाग्योदय में आ रही बाधाओं का कारण बताने का निवेदन किया। उसके बाद वो हुआ, जो अद्भुत, अकल्पनीय और चकित कर देने वाला था। बड़ी-बड़ी लाल आंखों से भाई साहब को घूरते हुए उस अधेड़ ने जो एक पंक्ति बोली, वो खोपड़ी घुमा देने वाली थी। उसने भारी-भरकम सी आवाज़ में बस इतना कहा कि- “फूटी बाल्टी से पानी चढ़ाओगे तो तक़दीर साबुत कैसे बचेगी?”
अब भाई साहब और मित्र के पास कहने-सुनने को शायद कुछ और था भी नहीं। ढाई साल पुराने दृश्य दोनों के ज़हन में तैर रहे थे। अधेड़ किसी अगले को उठने का इशारा कर अपना ध्यान दोनों से हटा चुका था। दोनों उस रात की तरह आज तक नही समझ सके हैं कि एक निर्जन स्थल पर भूलवश हुई भूल का पता एक दूसरे राज्य केअपरिचित व अंजान इंसान को कैसे चला। वो भी पूरे ढाई साल बाद। जबकि काली रात के उस विशेष अनुष्ठान की इस चूक का साक्षी कोई चौथा व्यक्ति नही था। इस बारे में न मित्र के परिवार के किसी सदस्य को कुछ मालूम था, न भाई साहब के परिवार के किसी सदस्य को कोई जानकारी। होती तो यह रहस्य 24 साल बाद भी रहस्य न होता। मित्र अब संस्थानों की सेवाओं से मुक्त होकर सृजनधर्म में पूरे मनोयोग से संलग्न है। घर-परिवार के हालात पहले से बेहतर हैं। भाई साहब का नेहपूर्ण सान्निध्य आज भी पूर्ववत बना हुआ है। जो शायद भोलेनाथ के अनुष्ठान के प्रभाव से। भोले बाबा वैसे भी अपने भक्तों से अधिक समय तक रूष्ट रह नहीं सकते। तभी वे देवाधिदेव हैं, महादेव हैं।
परालौकिक संसार और उसके रहस्यों को सिरे से खारिज़ करने वाला विज्ञान भी शायद ही बता पाए कि ऐसा कैसे संभव था? आप भी सोचिएगा। शायद कोई विज्ञान-सम्मत तर्क आपको सूझ जाए। ऐसा तर्क जो मुझे आज तक नहीं सूझ पाया।
#जय_महाकाल