■ आलेख
#आज_प्रकाशित_रचनाएं
【02 फरवरी 2023】
#जीवन_दर्शन
■ परिस्थिति की अधीनता मात्र “आत्म-समर्पण”
★ न बनें भीरु और पलायनवादी
【प्रणय प्रभात】
सब कुछ परिस्थिति के अधीन बताना सोच का एक पुराना हिस्सा है। जिससे आज भी 90 प्रतिशत से अधिक लोग प्रेरित व प्रभावित हैं। सम्भवतः आत्मबल, इच्छाशक्ति व समयोचित चिंतन, मनन के अभाव में। कारण जीवन की आपा-धापी से कहीं अधिक समय की कमी है। जो समय-प्रबंधन से अनवगिज्ञता की देन है। साढ़े तीन दशक तक सार्वजनिक जीवन की पारी खेलने के बाद मेरा वैतक्तिक मत उक्त सोच का विरोधी है। मेरा मानना है कि परिस्थितियों के वशीभूत होने की बात करना भीरुता और आत्म-समर्पण से अधिक कुछ नहीं।
मेरी बात को आधार देने वाले जीवंत प्रमाणों की आज सर्वत्र व्याप्तता है। काल के कपाल पर ताल ठोक कर विषम से विषम परिस्थियों को सम बना लेने वालों की यशो-गाथा से सभी कर्म-क्षेत्र सुरभित बने हुए हैं। शारीरिक अपपूर्णता, विकृति और विकारों को पराजित कर विजेता बनने वाले हज़ारों लोग आज प्रेरणा का पुंज बन चुके हैं। कुछ का नाम लिखना शेष के साथ अन्याय होगा। इसलिए किसी का उल्लेख करना उचित नहीं लगता।
वर्तमान में सुर्खियां पाने वाले आत्म-बलियों के आदर्श अतीत के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अपना नाम व कीर्ति-वृत्तांत अंकित कराने वाले लाखों पुरोधा हैं। जिनके जीवन-वृत्त से परिचित होने वालों को तो पारिस्थितिक विवशता की बात करनी ही नहीं चाहिए। किसी गुरुत्तर पद पर रहते हुए तो कदापि नहीं।
कर्म-विहीन कथ्य मेरी प्रवृत्ति में नहीं। मैं एक भुक्तभोगी के रूप में स्व-कथन का पक्षधर रहा हूं। अनुभूत को अभिव्यक्त करना मेरे लेखन का मूल है। मन के दर्पण में स्वयं को देखने के बाद ही कोई निर्णय लेता हूं। निष्कर्ष जो भी पाता हूं, आपके सामने रख देता हूं। इस भरोसे के साथ कि, एक ने भी बात को ग्रहण कर लिया तो लेखन सार्थक हो जाएगा।
निवेदन बस इतना सा करना चाहता हूं कि एक बार अपनी सोच व सामर्थ्य सहित मेरी बात पर विचार अवश्य करें। प्रत्येक कार्य, प्रत्येक चुनौती को सहजता से सहर्ष स्वीकार करें। अस्त-व्यस्त जीवनशैली अपना कर व्यस्तता का प्रलाप बंद करें। समय-प्रबंधन व कार्य-नियोजन को जीवन का आधार बनाएं। व्यर्थ के विषाद स्वतः निर्मूल हो जाएंगे।
स्मरण रखिए कि ईश्वर ने आपको मानव-जीवन किसी उद्देश्य के साथ दिया है। आपको उन उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति करनी ही करनी है। जब जीवन के कथानक का निर्धारक परम्-पिता है, तो स्वयं को दुनिया के रंगमंच का पात्र क्यों न माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर कभी अपनी आत्मा से अवश्य मांगें। भरोसा रखें कि उत्तर आएगा, क्योंकि आत्मा में बैठा परमात्मा कभी, किसी प्रश्न पर निरुत्तर नहीं होता। अब यह आपकी आस्था व स्वीकार्यता का विषय है कि आप सच को स्वीकारें या अपने निराधार झूठ के साथ जीने के नाम पर अमोल जीवन का अनादर करें। मात्र श्वसन और धड़कन सहित नाड़ियों के स्पंदन को ही जीवन मान कर।।
【संपादक】
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
👍👍👍👍👍👌👌👌👌
#सामयिक_व्यंग्य-
■ ये कैसा गणतंत्र……..?
★ निरीह “जन” की छाती पर समूचा “तंत्र”
【प्रणय प्रभात】
बहुत बड़े मैदान के बीच छोटे से सुसज्जित व सुरक्षित पांडाल में नर्म गुदगुदे व कवर चढ़े सोफे पर स्वर नेता और आला अफसर। कतारबद्ध नई-नकोर कुर्सियों पर अधीनस्थ अधिकारी, छोटे-बड़े पत्रकार, रसूखदार और परिवार। साथ ही रस्सियों व जालियों के पार खुले आसमान के नीचे कड़क सर्दी की ओस में धुले धरातल पर हाथ बाँधे या जेब में डाले खड़े आम नागरिक और स्कूली बच्चे।
राष्ट्रीय त्यौहार के मुख्य समारोह में नेताओं व नौकरशाहों के लिए प्रस्तुति देने की मासूम चाह में अपनी बारी के इंतजार में खड़े सजे-संवरे बच्चों के दल। गणवेश में लकदक विद्यार्थियोँ की भीड़ को येन-केन-प्रकारेण अनुशासित रखने में जूझते गिने-चुने शिक्षकगण। हाथ पर हाथ रखकर तमाशबीन की भूमिका अदा करते पुलिस-कर्मी। आयोजन स्थल के मुख्य प्रवेश द्वार के पार आम जन और वाहनों को हड़काते तीसरे दर्जे के पुलिसिये। सोफों के सामने रखी टेबिलों पर नॉर्मल टेम्परेचर वाली मिनरल वाटर की बोतलें और गुलदस्ते। शीत-लहर के थपेड़ों के बीच भाग्य-विधाताओं को सलामी देने के लिए दम साध कर सतर मुद्रा में खड़े सशस्त्र दस्ते। सर्दी की बेदर्दी के बीच भूखे से बेहाल बच्चे आम दर्शक।
व्हीआईपी कल्चर के पोषक प्रोटोकॉल की अकड़ के साथ व्यवस्था के नाम पर पुलिसिया धौंस-धपट। अति-सम्मानित तंत्र और महा-अपमानित बेबस जन। आयोजन प्रांगण के बाहरी द्वार से शुरू होता भेदभाव और असमानता का अंतहीन सिलसिला। सबका साथ, सबका विकास वाले देश के आयोजन परिसर मे प्रवेश के लिए अलग-अलग दरवाजे। आम व ख़ास गाड़ियों के लिए अलग-अलग पार्किंग। बेकद्री से जूझते हुए अपनी प्रतिभा दिखाने को उत्सुक विद्यार्थियों के लिए एक अदद शामियाना तक नहीं। कथित जनसेवकों के सम्मान में व्हीआईपी व्यवस्था के नाम पर आधे परिसर का अग्रिम आरक्षण व अधिग्रहण यानि अधिकारों पर अधिकारपूर्वक अतिक्रमण। बड़े वर्ग के सिर पर अनुशासन और अदब की सैकड़ों तलवारें। सूट-बूट, टाई, टोपी, साफों, गमछों और वर्दियों के लिए मनचाहा करने की खुली छूट। आखिर क्या मायने हैं इस गणतंत्र के, जिसकी ढपली हम बीते 73 सालों से हर साल पूरी शिद्दत व मेहनत से बजाते आ रहे हैं?
बताएंगे लोकतंत्र के ठेकेदार….? जो इस बार भी बने चिरकालिक विकृतितों और विसंगतियों के पालनहार। इस बार गणतंत्र दिवस के समारोह में जन-भागीदारी बीते सालों की तुलना में आधे से भी कम। वो भी शहर की आबादी चौगुनी होने के बाद। सोचिए कर्णधारों, कहीं इसके पीछे उक्त हालात ही तो वजह नहीं….? वो भी उस मुल्क़ में जहां की राजधानी के कर्तव्य-पथ पर इस बार आम-आदमी अग्रणी पंक्ति में नज़र आए। भले ही अगले साल होने वाले सत्ता के फाइनल की कृपा से ही सही। कम से कम दिल्ली के सूरमाओं को तिहरी मार के बाद समझ में तो आया कि सरकार बनाने में रेहड़ी-पटरी, खोमचे और ऑटो वाले टाइप मैदानी आम लोग ही बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह अलग बात है कि सिंहासन टूर्नामेंट के सेमी-फाइनल में उतरने वालों की लू में उतार अब भी नहीं दिखा। जिन्हें चंद महीनों बाद इसी आम जन की चौखट पर अपना चौखटा घिसना है। अपने राम अच्छे रहे जो ज़लालत और फ़ज़ीहत के बेशर्म दौर में शर्म की चादर ओढ़ कर घरेलू टीव्ही से चिपके रहे। कम से कम रोचक व रोमांचक नज़ारे तो आराम से देखने को मिले। गर्वित और आह्लादित करने वाले नज़ारे। वो भी गरमा-गरम चाय की चुस्कियों के साथ। आत्म-सम्मान से भरपूर माहौल में। ज़िले के बड़े कार्यक्रम में कितना ही बन-ठन कर जाते, चाहे-अनचाहे धक्के ही खाते। क्योंकि अपने पास न कोई पालतू होने का पट्टा होता, न पहचान देने वाला सियासी दुपट्टा। जो घनघोर कलिकाल में घोर आवश्यक है। बहरहाल, अपनी खोपड़ी को तो सरकारी जुमला संशोधन के साथ ही सुहाया है। जो कहता है- “अपना सम्मान अपने हाथ। अपना प्रयास, अपना विश्वास। बाक़ी सब बकवास।।”
जय हिंद, जय संविधान, जय लोकतंत्र।।
■ सम्पादक ■
★न्यूज़ & व्यूज़★
श्योपुर (मध्यप्रदेश)