■ आज की बात / हालात के साथ
■ बेबस दिल की भड़ास…
【प्रणय प्रभात】
“भंवरे जाएं भाड़ में,
बने घूमते बॉस।
तेल लगाएं तितलियां,
माली का क्या लॉस?”
आज का यह दोहा संस्कृति और मौजूदा स्वरूप के ख़िलाफ़ एक भड़ास मान सकते हैं आप। यह वो भयावह दौर है जब बग़ीचे के माली को रखवाली का भी हक़ नहीं। आगे नसीब गुल खिलाने पर आमादा गुलों का। उम्र से पहले खिल जाने को बेताब कलियों का। उनका रस चूस जाने पर उतारू ज़िद्दी भँवरों और हश्र से बेपरवाह तितलियों का। बाग़वानो का काम अब शायद बग़ीचे के उजड़ जाने के बाद मातम से ज़्यादा कुछ बचा भी नहीं है शायद।।
समझ तो आप गए ही होंगे कि मैं कहना क्या चाहता हूँ। नहीं समझे हों तो देश के माहौल और उन वारदातों को समझ लें, जो दहलाने वाली रही हैं। बड़ी वजह है “नाम अब्दुल है मेरा” की तर्ज़ पर सारी दुनिया पर नज़र रखने के थोथे दावे और अपनी झोंपड़ी में सुलगती आंच के प्रति उदासीनता। बेहतर हो अगर बाहर “चौधराई” से पहले घर में “पटेलाई” कर ली जाए। वो भी थोड़ी दम-ख़म के साथ। ताकि कल ज़्यादा ग़म न करना पड़े। जो ऐसा न कर पाए, वो ऊपर लिखे दोहे से मन बहलाएँ। आगे भगवान की मर्ज़ी।।