■ आज की बात : सरकार और सिस्टम के साथ
#अहम_सवाल
■ उन्माद के पीछे की मंशा आख़िर क्या…?
★ सरकार और सिस्टम बेबस क्यों…?
★ उन्माद उद्योग के एंटर-प्रेन्योर
★ फ़साद कारोबार का स्टार्टअप
【प्रणय प्रभात】
मंगलवार की रात आखिरकार वही हुआ, जिसका अंदेशा था। उपद्रव को लेकर व्यक्त पूर्वानुमान अक्षरक्ष सटीक निकला। देश की राजधानी के बेहद रियायती शैक्षणिक परिसर से वो सब सामने आया, जो लगभग तय था। आसार हाहाकार के थे, जो साकार भी हो गए। देश की संप्रभुता के पर्व गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या से महज एक दिन पहले वही हालात बने, जो पहले भी बन चुके हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ बैनर और ढाटों के पीछे छिपे चेहरों का था। बाक़ी सारे हालात लगभग वही थे, जिन्हें फ़साद, उन्माद या जेहाद कुछ भी नाम दिया जा सकता है।
दशकों पुरानी एक विदेशी डॉक्यूमेंट्री के प्रदर्शन को लेकर हिंसा का अखाड़ा बना दिल्ली का जेएनयू परिसर। जहां छात्र संगठन के नाम पर सक्रिय दो गुटों के मुस्टंडों ने जम कर बवाल काटा। इस दौरान काटी गई बिजलो ने नक़ाबपोशों उन्मादियों को अपना मंसूबा पूरा करने की वो आज़ादी दी, जिसकी मांग इस केम्पस से पहले भी उठ चुकी है। ऐसे में अहम सवाल बस यह है कि गणतंत्र दिवस से एन पहले मचाए गए गए इस फ़साद के पीछे की असली मंशा आखिर क्या है और तंत्र की ख़ामोशी के पीछे क्या कारण हैं? वो भी तब जबकि राष्ट्रीय पर्व पर राजधानी के रास्ते देश को दहलाने की आशंकाएं हमेशा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं। इस सवाल पर सरकार से जवाब की कोई उम्मीद नहीं, लेकिन कथित धर्मराजों के समक्ष यक्ष बनकर सवाल उठाने का हक़ मेरी तरह हरेक भारतीय को है।
आज अगर किसी से पूछा जाए कि क्या आपको “लोकतंत्र” में लाठी, गाली, दमन, शोषण, हठधर्मिता, मनमानी, तानाशाही, लूटमार, षडयंत्र,चालबाज़ी, दबंगई, ढीठता, निरंकुशता, उद्दंडता आदि-आदि की कोई जगह दिखती है, तो जवाब यही मिलेगा कि- “बिल्कुल भी नहीं।” बावजूद इसके होता पूरी तरह वही है, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ शर्मनाक और दुःखद है। प्रमाण हैं बीते साल जैसे बीती रात के भयावह मंज़र, जिनके आसार अकस्मात नहीं बने। प्रश्न यही खड़ा होता है कि मंगलवार की सुबह से जारी अमंगल की तैयारी के दौरान वो एजेंसियां क्या कर रही थीं, जिन पर जल-थल-नभ की चौकसी की ज़िम्मेदारी है? मस्तीखोर और मुफ्तखोरों की आबादी के विस्फोट और आज़ादी के अर्थ में खोट वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्रिक देश में समय-विशेष पर ऐसे विवाद क्या किसी बड़ी साजिश की ओर इशारा नहीं करते?
सर्वविदित है कि बीते दो दशक से कोई भी चुनावी साल बिना बवाल, बिना धमाल गुज़रना इस मुल्क में संभव नहीं। संभव होगा तो कथित लोकतंत्र की उस आन-बान-शान को बट्टा नहीं लग जाएगा, जो जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जनाधार, तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण जोसे मूल-तत्वों पर टिकी हुई है? हाल-फ़िलहाल इस तरह के विकृत दृश्यों और कुत्सित मंशाओं पर विराम तो दूर, अंकुश लगने तक के आसार नहीं हैं। किसी भी पुराने मुद्दे पर नए बखेड़े की स्क्रिप्ट रोज़ ताल ठोक कर लिखी जा रही है। जिसका मंचन गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस सहित बड़े अवसरों पर या उनके आसपास होना सहज संभव बना हुआ है। हिंसा, उन्माद व षड्यंत्रों पर केंद्रित त्रासदीपूर्ण कथानकों के पात्र अपनी-अपनी भूमिका अदा करने को 24 घण्टे तैयार हैं, जिन्हें आप साज़िश के कारोबार का एंटर-प्रेन्योर भी मान सकते हैं। उन्माद-उद्योग के स्टार्टअप में जुटी निरंकुश मानसिकता को समर्थन और सहयोग की रोकथाम भी लगभग असंभव सी लगती है।
लोकशाही के नाम पर सियासत के बैनर तले आए दिन बन रही फ़िल्मों के ट्रेलर बेनागा सामने आ रहे हैं। सिस्टम शायद सरकार की तरह मुंह में दही जमाए और कानों में रुई लगाए बैठा है। लिहाजा हुड़दंग और हंगामे से भरपूर राजनैतिक मूवी में नज़र आने वाले शातिर व माहिर अपने-अपने किरदार के मुताबिक मेकअप, सेटअप और गेटअप में मशगूल बने हुए हैं। जिन्हें जलवा पेलने के लिए किसी शिक्षण-प्रशिक्षण की कहीं कोई ज़रूरत नहीं। उनका सारा कारोबार ख़ैरात में हासिल फंड्स और फंडों से चल जो चल रहा है। शायद यह भी लोकतंत्र के जलसे का एक नया वर्ज़न है। जिस पर सेंसरशिप का कोई नियम लागू नहीं। देश की जनता टेक्स-फ्री नूरा-कुश्ती को देखने की आदी हो ही चुकी है। जिसे तब तक कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, जब तक आपदा की गाज़ ख़ुद के सिर पर न गिरे। लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ के तौर पर महिमा-मंडित न्यूज़ चैनल्स अपनी टीआरपी को बूस्ट व बूम देने वाले हुजूम की परफॉर्मेंस को प्रसार देने के लिए बेताब है ही। कुल मिला कर एक तरफ देश मोर्चाबंदी के चक्रव्यूह में फंसा नज़र आ रहा है। दूसरी तरफ देश की ताकत व तैयारी की नुमाइश का जश्न ज़ोर-शोर से जारी हैं। क़यासों, अटकलों और आसारों के बीच मुझे याद आ रहा है किसी उस्ताद शायर का यह शेर-
“हरेक काम सलीके से बांट रक्खा है।
ये लोग आग लगाएंगे, ये हवा देंगे।।”
बहरहाल, उपद्रवियों के निशाने पर देश की अस्मिता की प्रतीक राजधानी दिल्ली है। जहां उन्माद की वजह और उन्मादियों के चेहरे ही बदल सकते है, नापाक नीयत और इरादे नहीं। मंशा वही, दुनिया मे देश की बदनामी सहित गणतंत्र दिवस से बीटिंग-रिट्रीट तक की चाक-चौबंद तैयारियों में व्यस्त पुलिस को झंझटों में उलझाने की। ताकि इसका लाभ राष्ट्र-विरोधी ताक़तें आसानी से उठा सकें। जो किसी वारदात को अंजाम देने की ताक में लगातार जुटी हुई हैं। ऐसे में यदि कोई बड़ी अनहोनी निकट भविष्य में होती है तो जवाबदेही किसकी होगी? यह तंत्र तय करे, जो पिछले फ़सादों के दौरान भी दिल्ली पुलिस की तरह बेबस नज़र आया था। केवल इस बहाने की आड़ लेकर, कि उन्माद पर आमादा कोई बाहरी नहीं अपने भारतीय ही थे। जो कल को वोटर और सपोर्टर भी बनेंगे। ऐसे में बस यही कहा जा सकता है कि ख़ुदा ख़ैर करे…।।
【संपादक】
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