■ अभाव, तनाव, चुनाव और हम
#सामयिक_रचना-
■ क्या खाक़ मनाएं दीवाली…?
【प्रणय प्रभात】
बरसात बिना गुम हरियाली।
सूखी शाखें, सूखी डाली।।
ऊपर से विकट महामारी।
जिससे सारी दुनिया हारी।।
लाचार करोड़ों कामगार।
बेबस श्रम करता चीत्कार।।
बंदिश ने छीने रोज़गार।
सामाजिक दूरी इक प्रहार।
ना कलरव है ना चहल-पहल।
कोने में अश्रु बहाते हल।।
तितली मंडराना भूल गई।
कोयल भी गाना भूल गई।।
जुगनू से सूरज डरा-डरा।
अन्तर्मन में अंधियार भरा।।
दिनकर पे ग्रहण अमावस का।
है लोप दीप के साहस का।।
आधी आबादी फटे हाल।
पोषण से वंचित नौनिहाल।।
मुट्ठी में क़ैद सवेरा है।
दीपक के तले अंधेरा है।।
क़द से बढ़ कर है परछाई।
अभिशप्त हो गई तरुणाई।।
फिर चील-गिद्ध की परवाज़ें।
श्वानों के जैसी आवाज़ें।।
आपात-काल सी पाबंदी।
मंहगाई, लूटपाट, मंदी।।
जनहित के प्रति बेपरवाही।
हिटलर जैसी नौकरशाही।।
सौगातें सब खैरात बनीं।
सुरमई सांझें भी रात बनीं।।
बारूदी धुंआ हवाओं में।
कोलाहल दसों दिशाओं में।।
अस्मत सस्ती, जीवन सस्ता।
बचपन से भारी है बस्ता।।
श्रमजीवी तक अवसादग्रस्त।
है लोक तंत्र से बहुत त्रस्त।।
हो चुकी विषैली हवा आज।
हर कल्पवृक्ष पर गिरी गाज।।
घर-आंगन में विश्वास-घात।
सीमाओं पर नित रक्तपात।।
नदियां सूखीं पनघट रीते।
संचित थे अन्न-कोष बीते।।
जेबें ख़ाली, बर्तन ख़ाली।
क्या खाक़ मनाएं दीवाली??
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)