ग़ज़ल
शाम-ए-मंजिल से आगे अब किधर जाना चाहता हूँ ?
मैं यहा जिंदा रहना या गुजर जाना चाहता है
सिर्फ दस्ते तमाशा है इश्क मेरे खातिर ये
थक गया हूँ मैं इसके बाद घर जाना चाहता हूं
पहले पत्थर था मैं फिर मैं हुआ फूल-ए-कांच ‘मित्रा’
जिंदगी छू ले मुझको मैं बिखर जाना चाहता हूँ