ग़म की कई जमातें
ये मनहूस सी रातें और इधर उधर की बातें।
स्वप्न भी डरावने से और बिजली मय बरसातें।
मेरे किस्से को तब जानोगे जब मैं कभी बतलाऊंगा,
कि अपने अंदर लिए फिरता हूँ ,गम की कई जमातें।
अपनी परछाई भी अब तो , नहीं रही है साथ मेरे ।
अब तो अकेले पड़ से गए ,सारे ही जज्बात मेरे।
दिन का कटना मुश्किल सा है ,कैसे कटें ये रातें।
कि अपने अंदर लिए फिरता हूँ ,गम की कई जमातें।
लगता है कि ख़्वाब हमारे मुक़म्मल कभी न होंगे।
परेशानियां पीछे हैं लगी ,क्या सफल क़भी न होंगे।
जिंदगी यूँही कट जाएगी ,अब तो सुनते सुनाते।
कि अपने अंदर लिए फिरता हूँ ,गम की कई जमातें।
बदल गया है हर मंजर ,जबसे है
किस्मत बदली।
क्या कुछ नहीं है गया बदल ,लोगों की फितरत बदली।
अब तो हर कोई करता है ,ऊपर के मन से बातें।
कि अपने अंदर लिए फिरता हूँ ,गम की कई जमातें।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी