‘मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो’
*देती धक्के कचहरी, तारीखें हैं रोज (कुंडलिया*
यह जो पका पकाया खाते हैं ना ।
कोई गीता समझता है कोई कुरान पढ़ता है ।
"फ़ुरक़त" ग़ज़ल
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
बादलों की आवाज आई वह खड़ी थी वहां पर एक बूंद ऊस पर भी गि
न मां पर लिखने की क्षमता है
“ सर्पराज ” सूबेदार छुछुंदर से नाराज “( व्यंगयात्मक अभिव्यक्ति )
ये अमावस की रात तो गुजर जाएगी
विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
पर्वतों और मैदानों में अहम होता है
माना कि मेरे इस कारवें के साथ कोई भीड़ नहीं है |
कोई जिंदगी भर के लिए यूं ही सफर में रहा