सामाजिक हिंसा
मनुष्य ने इस पृथ्वी पर जब से जन्म लिया है। तब से उसमें प्राथमिक रूप से दो गुण विद्यमान रहे हैं ।
एक राक्षसी गुण और दूसरा दैवीय गुण ।
इन गुणों की प्रतिशत मात्रा प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न भिन्न रहती है ।उनमें से प्रत्येक में यह उनमें निहित वंशानुगत गुण एवं प्राप्त संस्कारों के कारण होती है। मनुष्य जिस वातावरण में पला एवं बढ़ा होता है। उसी के अनुसार इन गुणों का प्रतिशत उसके चरित्र में पाया जाता है । यहां एक विचारणीय विषय यह है कि वंशानुगत प्राप्त राक्षसी गुण भी अच्छे गुण वाले व्यक्तियों के सानिध्य एवं अच्छे वातावरण में दैवीय गुणों में परिवर्तित हो जाते हैं। पर इसका विपरीत सही नहीं होता। दैवीय गुणों वाला व्यक्ति राक्षसी गुणों के सानिध्य में रहकर भी कीचड़ में कमल की भाँति उनसे अछूता रहता है। समाज में व्याप्त विसंगतियों में राक्षसी गुणों वाले व्यक्तियों का योगदान अधिक रहता है । राक्षसी प्रवृत्ति के निर्माण मे परिस्थितियां एवं वातावरण जिम्मेदार हैं। संस्कार विहीनता, बेरोजगारी ,गरीबी एवं लाचारी भी नकारात्मक विद्रोही प्रवृत्तियों को बढ़ाने में सहायक होती है ।जिसमें शासन के विरुद्ध हिंसा लूटपाट आगजनी तोड़फोड़ इत्यादि शामिल है। जिसमें भीड़ की मनोवृत्ति कार्य करती है इसमें व्यक्तिगत सोच एवं समझ का कोई स्थान नहीं होता है । कुछ अराजक तत्व इस भीड़ की सोच का फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। आजकल कुछ राजनेता दलगत राजनीति के चलते ऐसे गुंडा तत्वों का इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए करने लगे हैं।
टीवी ,फिल्मों ,इंटरनेट इत्यादि के प्रयोग से हिंसा को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है। जिससे जनसाधारण में हिंसक होने का प्रोत्साहन बढ़ता है। किसी भी घटना को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना यह एक आम बात हो गई है । जिससे नकारात्मक सोच को बढ़ावा मिलता है । जिन व्यक्तियों में राक्षसी गुण अधिक होते हैं वे और भी हिंसक हो जाते हैं। अपराधियों की भर्त्सना करने के बजाय उनका महिमामंडन फिल्मों, टीवी और मीडिया में किया जाता है । जिसके फलस्वरूप आम जनता में ऐसे व्यक्तियों को अपना नेता मानकर उनका अनुसरण किया जाता है जिससे एक गलत परंपरा को बढ़ावा मिलता है ।समाज में व्याप्त धन लोलुपता एवं किसी भी तरह बिना परिश्रम किए पैसा कमाने की होड़ से लूट ,धोखाधड़ी, जालसाजी और रिश्वतखोरी को बढ़ावा मिलता है । फिल्मों में भी भी इस प्रकार के प्रसंग दिखाए जाते हैं जिसमें शीघ्र धनवान होने के गुर भी सिखाए जाते हैं ।जो एक गलत परिपाटी है। जिससे समाज में इस प्रकार के घटनाओं की वृद्धि होती है । फिल्म निर्माताओं का कहना है कि वह समाज में जो है वही दिखाते हैं ।परंतु मेरे विचार से वे नकारात्मकता ही ज्यादा दिखाते हैं उसमें से कुछ फिल्मों में लेश मात्र भी सकारात्मकता नहीं होती। फिल्म निर्माताओं ने इस प्रकार की फिल्मों में जिनमें सेक्स बलात्कार धोखाधड़ी हत्या एवं अन्य अपराध जो समाज में व्याप्त बुराइयां हैं उनको बार-बार दिखा कर एक दर्शक वर्ग का निर्माण कर लिया है । जो ऐसी फिल्मों को पसंद करने लगा है। जिससे उन्हें अपनी फिल्मों को भुनाने में काफी हद तक सहायता मिलती है। जब फिल्म का हीरो अपराध करता है और हिंसक हो जाता है जिसको बढ़ा चढ़ाकर फिल्मों में पेश किया जाता है जो वास्तविकता से बिल्कुल परे होता है। परंतु उसका अनुसरण वास्तविक जीवन में करके कुछ सरफिरे युवक समाज में हिंसा फैलाने लगते हैं। और जिसके दुष्परिणाम में अपराधी बनके अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर लेते हैं ।यह एक कटु सत्य है जिसे झुटलाया नहीं जा सकता। इस प्रकार समाज में हिंसा फैलाने के लिए फिल्म, टीवी एवं इंटरनेट भी जिम्मेदार है ।इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।
विगत कुछ दिनों में मैंने देखा है लोगों की सोच मैं काफी बदलाव आ चुका है। सोशल मीडिया फेसबुक व्हाट्सएप टि्वटर आदि के माध्यम से नकारात्मकता को एक दूसरे से साझा करके बढ़ावा दिया जा रहा है । जो एक अदृश्य जहर की भाँति समाज में फैल कर समाज मे व्यक्तिगत सोच को दूषित कर भीड़ की मनोवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है।
सोशल मीडिया में लोग बिना कुछ सोचे समझे और तथ्य को जाने बिना अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं ।जो उनकी निम्न स्तरीय मानसिकता का परिचायक है। किसी भी व्यक्ति के चरित्र का हनन उसके द्वारा व्यक्त कुछ विचारों को सोशल मीडिया में ट्रोल कर मिनटों में किया जा सकता है। यह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण विषय है कि लोगों में व्यक्तिगत सोच का अभाव होता जा रहा है।
कुछ धर्मांध तत्व धर्म के नाम पर हिंसा फैला कर एवं कुछ जाति विशेष के विरुद्ध भ्रम पैदा कर अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने का प्रयत्न कर रहे है। इसमें धर्म पर राजनीति करने वालों का भी बड़ा हाथ है ।
इन तत्वों की मानसिकता का स्तर इतना निचला हो चुका है कि वे ऐतिहासिक तथ्यों को भी तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत कर लोगों में भ्रम पैदा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए है।
समाज में फैली हुई अराजकता एवं बुराई के लिए केवल शासन को दोषी ठहराना उचित नहीं है। नागरिकों के सहयोग के बिना स्वस्थ प्रशासन नहीं चल सकता ।सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी केवल प्रशासन की है यह कहना भी उचित नहीं है। नागरिकों में जागरूकता एवं सुरक्षा में सहयोग की भावना का विकास होना भी जरूरी है ।जनसाधारण में आतंक के विरुद्ध एकजुट होकर डटकर सामना करने की भावना का भी विकास होना जरूरी है।
पुलिस प्रशासन में भी जनता से सहयोग लेने की एवं उनमें पुलिस के प्रति सद्भाव पैदा करने की आवश्यकता है। जिससे पुलिस को जनसाधारण एक सुरक्षा मित्र की तरह देखें।
पुलिस विभाग में व्याप्त रिश्वतखोरी एवं पक्षपात की भावना भी समाप्त होना चाहिए । इसे स्थापित करने के लिए प्रशासन को उनमें छिपे बगुला भक्तों को ढूंढ निकाल कर प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करना पड़ेगा ।तभी उनकी छवि जनसाधारण की नजरों में सुधर सकेगी।
जनप्रतिनिधियों को दलगत राजनीति से हटकर राष्ट्रवादी सोच का विकास करना पड़ेगा । केवल नारे लगाने से काम नहीं चलेगा । उन्हें स्वयं को सिद्ध करना पड़ेगा। जिससे जनसाधारण उनसे प्रेरणा लेकर राष्ट्रप्रेम की भावना अपने मनस में विकसित कर सकें तभी राष्ट्र का उद्धार संभव हो सकेगा ।