हौसलें
चलते-चलते थक पावँ मेरे जाते हैं,
हम उसी मोड़ पे क्यों ठहर जाते हैं,
यूं तो वक्त से है हर कोई बोल उठा,
चाहते बहुत पर हौसलें मर जाते हैं,
पावँ से पहले निगाह मेरी देख उठी,
मेरे चिराग से ही घर मेरा जलाते हैं,
अपने जख्मों को सीकर मैं जिंदा हूँ,
जख्म तो जख्म अपने भी चिढ़ाते हैं,
वक्त से रुख्सत भला मैं जाता कहाँ,
वक्त ही कहता है जख्म भर जाते हैं,
एक बार फिर मुझसे वो कहने लगा,
पावँ के बदौलत बुलंदी नहीं जाते हैं,
ऊँचें मकानों की मामूली सी रौनक है,
आसमाँ से देखें तो छोटे नज़र आते हैं,
इत्तला देता हूँ हौसला तुम साथ रखो,
फिर तो पावँ बुलन्दी तक तेरे जाते हैं,