हो गए
अरसा लगा… उमर गयी… बेहाल हो गए
भरोसे खर्च डाले सब और कंगाल हो गए
मुझे जानते थे बस मेरी आहट से जितने लोग
मेरी पहचान पर उनके ही कई सवाल हो गए
जंजालों से जिन्हे उबारता कुछ उम्र मैं रहा
उनके लिए भी हम नए जंजाल हो गए
कमाल…. करीबियों में कुछ कमाल का रहा
हम कमाल भी हुए नहीं वो वाकमाल हो गए
हमारा जिक्र कैद है ऐबों की जेल में
हम…. याद न आने वाले इक खयाल हो गए
मैंने खुद को कोसा और खुद से लड़ पड़ा
मुझसे ही…..मेरे……अनगिनत बवाल हो गए
मैं जो था…..जो हूँ….. इसमें तमाम फर्क है
जो था…. उससे मिले तो….कई साल हो गए
-सिद्धार्थ गोरखपुरी