#है_व्यथित_मन_जानने_को………!!
#है_व्यथित_मन_जानने_को………!!
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प्रेम का पर्याय हो तुम, या कि यह पर्याय तेरा,
है व्यथित मन जानने को, सद्य ही आकर बता दो।
प्रेम का पर्याय बनना है कठिन दुष्कर नहीं पर,
कण्टकों के, सङ्ग रहना, पुष्प ही बस, जानता है।
पीर को रख,कर परे वह, प्रीति की सानिध्यता को,
पा सके अन्तर्निहित दिन रात ही रण ठानता है।
व्याकरण अनुराग का समझूँ भला किस भांँति अहमक,
यन्त्र या प्रतिमान कोई अद्य ही आकर बता दो।
हैं व्यथित मन जानने को………!!
प्रेम उर संवेदना है, प्रेम भक्ती भाव पावन,
प्रेम के निहितार्थ ही लंका जली यह सत्य शाश्वत ।
बेर जूठन भीलनी के खा गए रघुवर विहँस कर,
प्रेम के बस मग्न होना है जगत में तथ्य शाश्वत।
प्रश्न के दुष्कर भँवर में, फँस गया हूँ मैं अकारण,
जानते यदि तथ्य हो तुम वद्य ही आकर बतादो
हैं व्यथित मन जानने को………!!
शाक मुरलीधर कन्हाई खा विदुर घर आ गए जब,
वक्ष में अभिमोद जैसे, स्वर्ग का सुख पा गए थे।
और वैसे ही प्रिये! तुम त्याग हर प्रतिबन्ध जग का,
एक दिन वक्षस्थ मेरे आप ही से आ गये थे।
प्रेम का अद्भुत समागम, है भला कैसा विलय यह,
अंकुरित उर कौतुहल के मध्य ही आकर बता दो।
हैं व्यथित मन जानने को………!!
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार