है कहीं धूप तो फिर कही छांव है
है कहीं धूप तो फिर कही छांव है
इस जहा मे न मिलता कहीं ठाव है।
रफ्ता रफ्ता यु ही कट रही जिंदगी,
बेबसी के तले अब दबे पाव है।
चल रही बेबसी में हर इक सांस है,
जिस्म पर लगे अनगिनत घाव है।
सिसकियों में दबे सारे अरमान है,
अब जुबां पर नहीं प्रेम के भाव है।
है बिखरते सभी सबके सपने यहां
कौन इनको संभाले नही चाव है।
एक रोटी कमाने की जद्दोजहद,
चल रहा हर कोई यहा दांव है।
निकुम्भ कि कलम से