**हे राणा! प्रताप जागो**
**हे राणा! प्रताप जागो**
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हे राणा!काल का चक्का घूम चूका है ,
चंहुऔर प्रभाव अपना दिखा चुका है।
इसांन गिरगिट का चिर पहन चुका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
अन्धो मे से काना राजा बन चुका है,
जो कुटील चाले अपनी चल चूका है।
निज स्वार्थो का दरबार सजा चूका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
सबको धर्म का डमरू थमा चूका है,
इसांन इसकी ही धुन मे रम चूका है।
राजा स्वार्थो की बशीं बजा चुका है।
हे राणा! प्रताप जागो।
दैत्य का सितारा जैसे जाग चुका है,
अबला का चिर अब खिंच चुका है।
नाथ धृतराष्ट्र सा आंखे मूंद चूका है।
हे राणा! प्रताप जागो।
मजलून चक्की मे खूब पिस चूका है,
हवाई किलो मे बिल्कुल फंस चूका है।
दहाड़ मदद भी की खूब लगा चूका है,
**हे राणा! प्रताप जागो**
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हे राणा!काल का चक्का घूम चूका है ,
चंहुऔर प्रभाव अपना दिखा चुका है।
इसांन गिरगिट का चिर पहन चुका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
अन्धो मे से काना राजा बन चुका है,
जो कुटील चाले अपनी चल चूका है।
निज स्वार्थो का दरबार सजा चूका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
सबको धर्म का डमरू थमा चूका है,
इसांन इसकी ही धुन मे रम चूका है।
राजा स्वार्थो की बशीं बजा चुका है।
हे राणा! प्रताप जागो।
दैत्य का सितारा जैसे जाग चुका है,
अबला का चिर अब खिंच चुका है।
नाथ धृतराष्ट्र सा आंखे मूंद चूका है।
हे राणा! प्रताप जागो।
मजलून चक्की मे खूब पिस चूका है,
हवाई किलो मे बिल्कुल फंस चूका है।
दहाड़ मदद भी की खूब लगा चूका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
पाखंड का बाजार एकदम लग चूका है,
पोंगा पंडित खूब करतब दिखा चूका है।
सकल जन मानो खेल से ऊब चुका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
✍️प्रदीप कुमार “निश्छल”
पाखंड का बाजार एकदम लग चूका है,
पोंगा पंडित खूब करतब दिखा चूका है।
सकल जन मानो खेल से ऊब चुका है,
हे राणा! प्रताप जागो।
✍️प्रदीप कुमार “निश्छल”