हे! दिनकर
हे! दिनकर
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कहीं दिखाई न दे रहा, भास्कर;
रैन भयावह,पग-पग शीतलहर।
चैन न बिन वासर,मचा है कहर;
सिहर रहा है शहर,भरी दोपहर।
निकल ना पा रहे, घर से बाहर;
कैसे हो, किसी का गुजर-बसर।
हर मन समा गई है, डर ही डर;
सबका जीवन गया, पूरा ठहर।
सूना पड़ा है, पूरा का पूरा नगर;
पाले पड़े धरा पे,बनी वो ऊसर।
तंगी ने तोड़ दी , ऊपर से कमर;
महंगाई मचा रही , अलग गदर।
ताकते सब तुझको, सदा ऊपर;
दिखे कोई,सूर्यप्रकाश हो अगर।
हे! दिनकर, तुम छुपे हो किधर;
जल्दी से दिख जा, इधर-उधर।
ठंड उगल रही , जहर ही जहर;
बिखेर दो तू, निज अमृत लहर।
पड़े जो सब पर,तेरी प्रभा प्रखर;
मृतप्राय भी हो जाये,फिर अमर।
इस ठंड में,हरेक साधन बेअसर;
बिन तेरे,नहीं कहीं सुख मयस्सर।
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स्वरचित सह मौलिक;
,,,,,,,,✍️पंकज ‘कर्ण’
……कटिहार(बिहार)
ता. ०३/०१/२०२३