हूँ थोड़ी नादान सी
हूँ थोड़ी नादान सी,इस जग से अनजानी।
अपने ही धुन में रहूँ, करती हूँ मनमानी।
चलूँ पवन के वेग से, कहीं नहीं मैं ठहरी ।
आँखों में सपने लिए,फिरूँ भरी दोपहरी।
चंचल चपला की तरह, चालें हिरणी जैसी।
मैं निर्मल निर्दोष हूँ, समझ न ऐसी-वैसी।
हूँ थोड़ी सी बावली, थोड़ी सी दीवानी।
अपने ही धुन में रहूँ, करती हूँ मनमानी।
हरियाली चारो तरफ,पहने धानी साड़ी।
भेड़़ बकरियाँ साथ में,लिए हाथ कुल्हाड़ी ।
बहुत तेज़ तर्रार -सी,हूँ अल्हड़-सी लड़की।
कभी चराती भेड़ को, कभी काटती लकड़ी।
तितली-सी उड़ती फिरूँ,चाल चलूँ मस्तानी।
अपने ही धुन में रहूँ, करती हूँ मनमानी।
चढ़ी आम के पेड़ पर, खाती कच्ची अमिया।
हँसती गाती खेलती,ऐसी अपनी दुनिया
फूलों-सी कोमल कली,करती बात निराली।
दुर्जन दुष्टों के लिए, बन जाती हूँ काली।
नहीं झमेलों में फँसी,अपने मन की रानी।
अपने ही धुन में रहूँ, करती हूँ मनमानी ।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली