हुनर का ग़र समंदर है..!
बह्र- 1222 1222
हुनर का ग़र समंदर है,
भला फिर क्यूं तुझे डर है..?
ज़माने को बतायें क्या,
लगी कंकड़ से ठोकर है।
यक़ीनन वक़्त बदलेगा,
अभी तो हाल बदतर है।
भला किरदार है मेरा,
मगर किस्मत भयंकर है।
बड़ा खामोश लगता हूँ,
मग़़र अंदर बवंडर है।
मैं जाऊँ तो किधर जाऊँ,
ज़मीं हर ओर बंज़र है।
अजब इंसान की फ़ितरत,
छुपा बस झूठ अंदर है।
पसारो पैर उतने ही,
कि जितनी पास चादर है।
वो तेरी आंख में आँसू,
कोई ठहरा समंदर है।
जो लेके घूमता मरहम,
उसी के पास खंज़र है।
नज़र जिस ओर है डाली,
उधर बदहाल मंज़र है।
न कमतर आंक तू उसको,
वो तुझसे फिर भी बहतर है।
हवा दे दो उड़ानों को,
यही बस एक अवसर है।
“परिंदा” उड़ चला देखो,
खुला कैसे ये पिंजर है..?
पंकज शर्मा “परिंदा”