अनुभूति, चिन्तन तथा अभिव्यक्ति की त्रिवेणी … “ हुई हैं चाँद से बातें हमारी “.
अनुभूति, चिन्तन तथा अभिव्यक्ति की त्रिवेणी … “ हुई हैं चाँद से बातें हमारी “.
भूपेन्द्र सिंह “होश”
यदि पद्य-साहित्य की चर्चा की जाए तो बिना किसी संदेह के आज के समय में यह कहा जा सकता है कि ग़ज़ल सबसे लोक-प्रिय विधाओं में से एक है. स्वाभाविक है कि साहित्य के पटल पर एक बहुत बड़ी संख्या ग़ज़लकारों की है जिसमें मुसलसल इज़ाफ़ा हो रहा है. नतीजतन ग़ज़ल-संग्रहों का प्रकाशन भी बढ़ रहा है. ग़ज़ल मूलतः क्या है और समय के साथ परिववर्तित हो कर आज क्या हो गई है इससे आप सभी वाक़िफ़ हैं. फिर भी मैं संक्षेप में बदलाव की दो बातों का ज़िक़्र करूँगा जो स्पष्ट नज़र आती हैं.
1. विषय-वस्तु :
ग़ज़ल की विषय-वस्तु [मौलिक रूप में] “महबूब से गुफ़्तुगू” थी यानी प्रेमिका या ख़ुदा से बात-चीत. ग़ज़ल का ये प्रारम्भिक रूप है जो पारम्परिक या क़दीमी ग़ज़ल के नाम से जानी जाती है. समय व चिन्तन में परिवर्तन के साथ ग़ज़ल के रूप को विस्तार मिला और उसमें सामजिक सरोकार, इन्सानी रिश्ते तथा सियासत आदि विषय भी शामिल हो गए. अब ग़ज़ल एक नए कलेवर में साहित्य के पटल पर स्थापित हो गई है. शाइरी के इस नए रूप को आधुनिक या जदीद शाइरी कहा गया है. ग़ज़ल के ये दोनों ही अंदाज़ मक़बूलियत की ऊँचाइयों पर हैं.
2. भाषा :
ग़ज़ल की लोक-प्रियता ने इसे भाषा के बन्धन से मुक्त कर दिया है. मूलतः ख़ालिस उर्दू में लिखी जाने वाली ग़ज़ल पहले हिन्दी में फिर देश की अन्य भाषाओं जैसे गुजराती, पंजाबी आदि में लिखी जाने लगी. आज भारत की बहुत कम ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें ग़ज़ल नहीं लिखी जा रही है. किसी विधा की लोक-प्रियता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है !
ग़ज़ल-लेखन के ऐसे सैलाब में हर ग़ज़लकार के ग़ज़ल-संग्रह का स्तरीय होना लगभग असंभव है. इस वातावरण में जब ग़ज़ल के सभी अवयवों से सुसज्जित कोई ग़ज़ल-संग्रह अस्तित्व में आता है तो खुशी के साथ-साथ सुक़ून का भी एहसास होता है.
डा. अर्चना गुप्ता जी की नयी क़िताब, ” हुई हैं चाँद से बातें हमारी ” एक ऐसी ही सुकूं-बख़्श तख़लीक़ है. ये कहा गया है कि साहित्यकार की रचनाएँ साहित्यकार के व्यक्तित्व का आईना होती हैं. अर्चना जी के ग़ज़ल-संग्रह ” हुई हैं चाँद से बातें हमारी ” ने एक बार फिर इस धारणा को सच साबित किया है.
डा. अर्चना गुप्ता जी को मैं कई वर्षों से जानता हूँ. वो एक शिक्षा-विद हैं जो कला और विज्ञान, दोनों से ही जुड़ी रही हैं. फल-स्वरूप जहाँ एक ओर वो कल्पनाओं के विस्तृत आकाश में विचरण करने की क्षमता रखती हैं वहीं दूसरी ओर तार्किक अनुशासन की प्रवृत्ति की स्वामिनी भी हैं. इस पृष्ठ-भूमि के कारण उनके लेखन में भाव-प्रवरता एवं छन्दानुशासन का आकर्षक संतुलन है जो उनकी ग़ज़लों को सहज लालित्य प्रदान करता है. उनके अशआर मफ़हूम की दृष्टि से प्रभावशाली तथा अरूज़ [छंद-शास्त्र] की कसौटी पर खरे उतरने वाले होते हैं. कथ्य और शिल्प की यह युगलबंदी अर्चना जी के लेखन में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है.
एक साहित्यकार में मूलतः तीन तत्वों का होना ज़रूरी है — अनुभूति, अभिव्यक्ति की इच्छा और अभिव्यक्ति की क्षमता. यह तभी संभव है जब उसमें संवेदनशीलता व चिंतनशीलता हो तथा सूक्ष्म अभिव्यक्ति हेतु सशक्त भाषा हो. उत्कृष्टता के लिए यह तीनों अवयव अनिवार्य हैं. डा. अर्चना गुप्ता में अवयवों की यह त्रिवेणी स्वतः उपस्थित है जो इनकी ग़ज़लों को पूर्णता प्रदान करती है. पांच साझा काव्य-संकलनों का सम्पादन तथा रचनाकार के रूप में एक गीत-संग्रह, दो कुण्डलिया-संग्रह, दो बाल-गीत-संग्रह और एक ग़ज़ल संग्रह का प्रकाशन आप की साहित्यिक क्षमता, परिपक्वता तथा विविधता का परिचायक है. आप का साहित्य के प्रति समर्पण आप की हर पुस्तक में दिखाई देता है. इस दृष्टि से प्रस्तुत ग़ज़ल-संग्रह ” हुई हैं चाँद से बातें हमारी ” भी अपवाद नहीं है.
आइये, बानगी के तौर पर हम अर्चना जी की पुस्तक से लिए गए कुछ अशआर पर चर्चा करें और उनका आनंद लें. —
समाज में फैली नफ़रत में प्यार मुश्किल हो गया है. लोग इंसानियत भूल गए हैं.
इस पर कुछ अशआर देखिए —
प्यार की शम्अ तो जलानी है
आग नफ़रत की है बुझानी भी
रास आई न ज़िन्दगी लेकिन
हमको जीनी भी है निभानी भी
वो नफ़रतों की दौड़ में यूँ हो गये शामिल
अपना ही मुहब्बत का सफ़र भूल गये हैं
पढ़ लिख के बड़ी डिग्रियाँ ले लीं हैं यक़ीनन
इंसान के अख़्लाक़ मगर भूल गये हैं
ख़ुशियाँ बढ़ने की गणित देखें ज़रा —
तुझको ख़ुशियों की दौलत बढ़ानी है गर
नफ़रतों को घटा प्यार को जोड़ दे
ज़िन्दगी में लाख ग़म हों पर इंसान फिर भी ज़िंदा रहना चाहता है — देखें
सताती भले ही रहे ज़िंदगानी
न चाहे कोई इससे दामन छुड़ाना
ज़िंदगी भर सब अलग-अलग बात का इंतज़ार करते हैं मगर अंत में मौत आती ही है — ये भाव देखिए
जब कभी कोई भी सुनी दस्तक
वो हमें उनकी ही लगी दस्तक
’अर्चना’ ज़िन्दगी किसी की हो
मौत ही देगी आख़िरी दस्तक
इंसान के जीवन में कितनी बंदिशें हैं फिर भी हौसलों का निराशा पर हावी होना सुखद है —
ज़िन्दगी इन्सान की यूँ बंदिशों में क़ैद है,
हर परिन्दा जैसे अपने घोंसलों में क़ैद है
नाउमीदी के अँधेरे हैं घिरे तो क्या हुआ
रोशनी भी तो हमारे हौसलों में क़ैद है
लोग नक़ली मुस्कराहट में अपने ग़म छिपा कर जीते हैं — देखें.
जिसकी मुस्कान के चर्चे थे ज़माने भर में
उसकी आँखों में भी लहराता समुंदर निकला
अर्चना जी की संवेदना कोरोना काल की स्थिति बयाँ कर रही है —
पहले थके हुये थे हम काम करते करते
बेचैन हैं मगर अब आराम करते करते
नफ़रतों के माहौल में प्यार की उम्मीद का मंज़र सुकून देता है —
नफ़रतों के शूल चुनकर मैं दिलों से
फूल उल्फ़त के खिलाना चाहती हूँ
दीप आशा के जलाकर ज़िन्दगी में
तम निराशा का भगाना चाहती हूँ
काँटों के साथ रहके बताते यही हैं फूल
नफ़रत के साथ दिल में मुहब्बत बनी रही
वक़्त की अनिश्चितता पर शेर देखें. —
क्या पता कब ये ले नयी करवट
वक़्त का कुछ पता नहीं होता
इश्क़ का आसमान सारा है
कोई तय दायरा नहीं होता
अच्छाई की उम्र छोटी होती है और बुराई की लम्बी — इसे किस अंदाज़ में कहा है अर्चना जी ने
फूल ख़ुशबू भी देकर बिखर जाते हैं
शूल चुभकर बिखरते नहीं उम्र भर
अपनों का दिया धोखा जीवन भर भूलता नहीं — यही सच है.
पीठ पर वार करते हैं अपने ही जब
ज़ख्म रिसते हैं, भरते नहीं उम्र भर
जब घर-परिवार ही टूट जाए तो मकान की निरर्थकता — दो मिसरों में.
घर है जब टूट ही गया अपना
फिर बनाकर मकान क्या करते
आज बुज़ुर्गों का जीवन एक मजबूरी में बदल गया है की कुछ भी हो, वो चुप रहें
ये ज़ईफ़ी किस क़दर मजबूर है
हर कोई कहने लगा है चुप रहो
बेसबब लफ़्फ़ाज़ियाँ बेकार हैं
रास्ता बस ये बचा है चुप रहो
लोग दूसरों की कमियाँ तो देखते हैं पर अपनी नहीं — देखिये शेर
बड़े ही शौक से जो आइना दिखाते हैं
वो ख़ुद को उसमें देखना ही भूल जाते हैं
प्यार कैसे ज़िंदगी में खुशी लाता है — ज़रा देखें.
दिल के रेगिस्तान में उल्फ़त की बारिश करके वो
कुछ ख़ुशी के बीज भी इस ज़िन्दगी में बो गया
विश्वास हर रिश्ते की बुनियाद है — इस सच को जताता हुआ शेर देखें
बनाना भरोसे की बुनियाद पक्की
इसी पर तो हर एक रिश्ता टिका है
पहले प्यार की कशिश उसे भूलने नहीं देती — इसे शायरा ने कितनी सहजता से कहा है.
यूँ तो वफ़ा के बदले मिली बेवफ़ाइयाँ
पर पहला प्यार हमसे भुलाया न जाएगा
अलग-अलग शेर में इल्म बाँटने की, वक़्त की और ख़्वाबों की अहमियत को बड़ी सादगी से डा. अर्चना जी ने कहा है. —
बाँटने से ये और बढ़ती है
दौलते-इल्म कम नहीं होती
हर शय ही है ग़ुलाम हमेशा से वक़्त की
करना है कुछ तो साथ सदा वक़्त के चलो
ज़िन्दगी चलती है ख़्वाबों का सहारा लेकर
ख़्वाब आँखों में हमेशा ही सजाये रखिये
परदेस में किसी अपने के मिलने की ख़ुशी का क्या कहना ! अभिव्यक्ति देखें.
मुस्कान से खिला तो ये चेहरा दिखाई दे
आँखों में मगर दर्द का दरिया दिखाई दे
मिलती है तपते दिल को मुहब्बत की छाँव सी
परदेश में जब भी कोई अपना दिखाई दे
मैं स्वयं को रोकते – रोकते भी काफ़ी अशआर की चर्चा कर गया. आप महसूस करेंगे कि डा. अर्चना गुप्ता जी ने बड़ी सादगी और शाइस्तगी से अपने ख़यालात अशआर में ढाले हैं. उनके मफ़हूम, अलफ़ाज़ का इस्तेमाल और मिसरे की रवानी — सभी क़ाबिले-तारीफ़ हैं. मुझे पूरा विश्वास है कि उनका यह ग़ज़ल-संग्रह — ” हुई हैं चाँद से बातें हमारी ” पाठकों द्वारा बहुत पसन्द किया जाएगा.
मैं डा.अर्चना गुप्ता जी को उनके ग़ज़ल-संग्रह — ” हुई हैं चाँद से बातें हमारी ” के लिए ह्रदय से बधाई देता हूँ साथ ही संग्रह की सफलता और उनके यश-दायी साहित्यिक भविष्य के लिए शुभ कामनाएँ सम्प्रेषित करता हूँ.
भूपेन्द्र सिंह “होश”
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