हिय–तरंगित कर रही हो….!
नयन–इंगित, हिय–तरंगित कर रही हो
संचरण जीवन–वरण तुम कर रही हो
कल्पना सा रूप लेकर
अल्पना घनीभूत देकर
कंचना प्रारूप लेकर
कर्मना फलीभूत देकर
पलक–मंत्रित, पिय–निमंत्रित कर रही हो
जागरण जीवन–प्रवण तुम कर रही हो
चंद्रमा सा मुख सलोना
श्याम–वरणा, केश हैं
दृग–तुम्हारे, मृग–सरीखे
कामिनी–धर वेश हैं
अधर–रंगित, प्रिय–प्रकंपित कर रही हो
संवरण जीवन–मरण तुम कर रही हो
कँचुकी, पैंजन ये करधन
सोलह श्रृँगारों का नर्तन
मोती–माला सोहे गर्दन
नूपुर–ध्वनि करती है छन–छन
अयन–अंकित, जिय–प्रलंबित कर रही हो
संतरण जीवन–तरण तुम कर रही हो
––कुँवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह✍🏻
★स्वरचित रचना
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