हिम्मत कर…
संवेदन शून्य पाषाण
हो गए हैं हुक्मरान
दर्द चीख़ चीख़ कर
अपनी दास्ताँ सुना रहा है
भावना है जिसमें बाकी,
हर शख्स मणिपुर की बेटियों
के लिए आंसू बहा रहा है.
ग़ज़ब है शहंशाह,
उसे ये चीखें ये दर्द
सुनाई नहीं देता.
हठ लगा बैठे है आला हुजूर,
उस बेदर्द को
कोई मायने नहीं रखती
अवलाओं की पीर,
बच्चों को खो बैठी माताओं की चीख़.
लोकतंत्र का मन्दिर
तमाशा बन कर रह गया है
कानून बनाने वालों का अगुवा
किस क़दर निर्लज्ज हो गया है.
जनता को ही अब जागना होगा
हिम्मत कर,
पाँच किलो राशन से उपर
उठना होगा,
लोकतंत्र के मन्दिर में
फ़िर भारत माँ को स्थापित करना होगा
मजलूमों का दर्द बाँट फ़िर
आईन बनाने वालों का
मान रखना होगा
जुट जायेंगे जब
घर घर से दर्द बाँटने वाले
अमृत सरिता बह निकलेगी
एक नए इन्कलाब का जन्म होगा
हिमांशु Kulshreshtha