हिन्दी ग़ज़़लकारों की अंधी रति + रमेशराज
ग़ज़ल विशेषांकों की कड़ी में अपनी भी एक कड़ी जोड़ते हुए संपादक श्री श्याम अंकुर ने ‘सौगात’ का अप्रैल-2009 अंक ‘ग़ज़ल-विशेषांक’ के रूप में निकाला। अन्य ग़ज़ल विशेषांकों की तरह यहाँ भी उन्होंने ग़ज़ल के कथ्य [आत्मा] को नहीं, शिल्प [शरीर] को खँगाला। सम्पादकीय का सार यह है-‘‘ग़ज़ल एक फ्रेम है, छंद नहीं। ग़ज़ल में एक से अधिक छंदों के प्रयोग के कारण हिन्दी के ग़़ज़़लकार उसे ग़़ज़ल से खारिज कर देते हैं । अपनी ग़लती की समझ न होने से खड़ा हो जाता है-‘हिन्दीग़ज़ल’ और ‘उर्दू-ग़ज़ल’ का मसला।’’
हिन्दी ग़ज़लकारों पर बेहद सटीक टिप्पणी करने वाले श्री श्याम अंकुर को भी आखिर ग़ज़ल की समझ कितनी है, यह तथ्य भी काबिले-गौर है-वे इसी सम्पादकीय में लिखते हैं-‘‘ ग़ज़ल पर कुछ लिखने के लिये मैं अधिकृत पात्र नहीं हूँ और न ग़ज़ल-अंक के सम्पादन का पात्र।’’
‘सौगात’ के इस ग़ज़ल विशेषांक के माध्यम से आखिर किस निर्णय तक पहुँचा जाये। जब इस विशेषांक के सम्पादक ग़ज़ल पर कुछ लिखने के अधिकृत पात्र हैं ही नहीं तो ‘ग़ज़ल-विशेषांक’ निकालने की लालसा के वशीभूत होकर विशेषांक निकालना, पानी के भीतर केवल पत्थरों को उबालना नहीं तो और क्या है? जिसे स्वादिष्ट व्यंजन बताकर पाठकों के समक्ष परोसा गया है।
जब श्याम अंकुरजी बकौल खुद-‘ग़ज़ल अंक के सम्पादन के योग्य हैं ही नहीं’ तो उनकी अयोग्यता की झलक इस विशेषांक में मिलना स्वाभाविक है। मसलन, उन्होंने रमेशराज के तेवरी शतक ‘ऊधौ कहियो जाय’ की एक तेवरी को ग़ज़ल मानकर पृ.13 पर छापा है। यह रचना ग़ज़ल इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि इस रचना का सम्पूर्ण कथ्य एक ही संदेश या भाव को सम्प्रेषित करता है। इस रचना की समस्त आठों की आठों पंक्तियाँ समान कथ्य की पोषक हैं। जबकि ग़ज़ल के हर शे’र का कथ्य दोहे के समान प्रथकता और सम्पूर्णता लिये हुए होता है। यह तेवरी दोहा छंद में अवश्य कही गयी है लेकिन ठीक उसी प्रकार यह दोहा न होकर तेवरी है जिस प्रकार कबीर के दोहे, दोहे न होकर साखी, सबद, रमैनी बतलाये गये हैं।
‘सौगात’ के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित तेवरी इसलिये भी ग़ज़ल नहीं है क्योंकि इसमें कोरे रूप-सौन्दर्य का मायाजाल नहीं है। इसमें प्रेमालाप या कामक्रियाओं का भूचाल नहीं है। फिर भी अन्य कई सम्पादकों की तरह सीत्कार और चीत्कार में भेद न कर पाना इस अंक के संपादक के लिये भी उतना ही सरल हो गया है जितना अन्य ग़ज़ल विशेषांकों के सम्पादकों के लिये रहा है।
ग़ज़ल विशेषांक निकालने की इस भेड़चाल को लेकर यह सवाल, मलाल के रूप में उभरना लाजिमी है कि ‘सही को सही कहने या मानने की समझ’ हम हिन्दी वालों में कब आयेगी? क्या तेवरी यूँ ही ग़ज़ल मानी जायेगी? ग़ज़ल को एक फ्रेम या ढाँचा बताने वाले उसकी मूल आत्मा पर बात करने से क्यों कतराते हैं? ग़ज़ल का वास्तविक अर्थ यदि ‘प्रेमिका से प्रेम पूर्ण बातचीत’ नहीं तो और क्या है? यदि इसके विपरीत कोई अर्थ बनता है तो उसका सार्थकता ‘तेवरी’ में अन्तर्निहित नहीं तो किसमें है?
ग़ज़ल को जनवादी स्वरूप प्रदान करने वालों को इसके नाम की सार्थकता पर भी विचार करना चाहिए। क्या कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई में वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की आत्मा को टटोला जा सकता है? क्या चम्पाबाई को रानी लक्ष्मीबाई बोला जा सकता है? इस सवाल पर भीष्म पितामह की तरह मौन धारण किये हुए कथित ग़ज़ल के पंडित क्या कभी मौन तोड़ेंगे या तेवरी के हर सवाल का उत्तर ग़ज़ल से ही जोड़ेंगे?
ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष का अधकचरा ज्ञान हो सकता है ऐसे लोगों को महान बनाने का प्रयास हो जो हिन्दी में ग़ज़ल तो लिखना चाहते हैं लेकिन उसके शिल्प/ छंदशास्त्र अर्थात् उरूज से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। रुक्न-अर्कान से बनने वाली ‘बहर ’ से मुक्ति पाने के लिये उर्दू या बहर के जानकारों को गरियाते हैं।
‘सौगात’ के इसी ग़ज़ल विशेषांक में ऐसे ही अधकचरे चिन्तन का एक और नमूना एक आलेख ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के परिदृश्य से गुजरते हुए’ में हिन्दी ग़ज़ल के महारथी श्री विज्ञानव्रत ने उरूज को लेकर बेशुमार तीर छोड़े हैं। उनकी दलीलों की कीलों को अगर उरूज में ठोंक दिया गया तो बिना उरूज के ग़ज़ल की जो शक्ल बनेगी, उस पर ग़ज़ल के शास्त्रीय जानकारों की पूरी की पूरी जमात हँसेगी। ग़ज़ल में हिन्दी छन्दों का ‘स्वतः स्फूर्त प्रयोग’ ग़ज़ल को किसी ऊँचाई तक ले जायेगा या ग़ज़ल को बीमार बनायेगा? इस सवाल पर विज्ञानव्रत का यह लेखनुमा शोध महज एक निरर्थक दिशाहीन क्रोध बनकर रह गया है।
हिन्दी की पत्रिकाओं के ये कैसे ग़ज़ल-विशेषांक निकल रहे हैं, जिनमें ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष [ शिल्प और कथ्य ] से मुक्ति पाकर ग़ज़ल को प्राणवान बनाये जाने की घोषणाएँ की जा रही हैं।
कुतर्कों के मायाजाल के अंतर्गत ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष [ शिल्प और कथ्य ] से मुक्ति पाकर ग़ज़ल को प्राणवान बनाये जाने की घोषणाओं का एक नमूना और देखिए-
‘सौगात’ के एक अन्य सम्पादक श्री ओम प्रकाश शाहू के ‘तुम्हारे लिए’ ग़ज़ल संग्रह के समीक्षा-कथन के अनुसार- अब ‘‘ग़ज़ल ने अपने को सामाजिक सरोकारों से जोड़ लिया है।’’
‘‘ग़ज़ल ने अपने को सामाजिक सरोकारों से जोड़ लिया है।’’ साहूजी की इस बात में कितना दम है, इसके लिए ‘सौगात’ के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित हिसामुद्दीन रजा, उषा यादव, विज्ञानव्रत, डाॅ. बेकस, विनयमिश्र, मिर्जा हसन नासिर, साहिल, चंचल, डाॅ. प्रभा दीक्षित, विश्व प्रताप भारती, पुरुषोत्तम यकीन, बेकल, शाकिर, कमल किशोर भावुक, ख्याल खन्ना आदि की ग़ज़लों को देखा/परखा जाता सकता है, जिनका आक्रोश से नहीं, प्रेमी को बाँहों में भरने के जोश से नाता है।
निश्चित तुकांत व्यवस्था को ही ग़ज़ल मानने या समझने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सौगात के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित कई ग़ज़लें रदीफ-काफियों को लेकर भी उपहास की मुद्रा में हैं। ओम साहू की ग़ज़ल में काफिया के रूप में चार बार ‘दार’ का प्रयोग एक संक्रामक रोग की तरह उपस्थित है।
निश्चित तुकांत व्यवस्था को ही ग़ज़ल मानने या समझने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सौगात के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित कई ग़ज़लें रदीफ-काफियों को लेकर भी उपहास की मुद्रा में हैं। डाॅ. बेकस ने अपने मतला शे’र में ‘ढली’ की तुक ‘खुली’ से मिलायी है।
निश्चित तुकांत व्यवस्था को ही ग़ज़ल मानने या समझने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सौगात के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित कई ग़ज़लें रदीफ-काफियों को लेकर भी उपहास की मुद्रा में हैं। यायावरजी ‘जिन्दगी’ की तुक ‘सादगी’, के बाद ‘आवारगी’ से भी जोड़ते हैं। ये सब इस प्रकार ग़ज़ल के घाव छोड़ते हैं और उस पर नीबू निचोड़ते हैं।
निश्चित तुकांत व्यवस्था को ही ग़ज़ल मानने या समझने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सौगात के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित कई ग़ज़लें रदीफ-काफियों को लेकर भी उपहास की मुद्रा में हैं। गोबिन्द कुमार सिंह ‘यहां’ की तुक ‘सिया’ ‘जिया’, ‘गया’ से मिलाकर ग़ज़ल-ग़ज़ल चिल्लाते हैं।
निश्चित तुकांत व्यवस्था को ही ग़ज़ल मानने या समझने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सौगात के ग़ज़ल विशेषांक में प्रकाशित कई ग़ज़लें रदीफ-काफियों को लेकर भी उपहास की मुद्रा में हैं। मुनव्वर अली ताज ‘सरकार’ की तुक ‘लाचार’ से मिलाकर ‘चित्कार, ‘दरकार’ से भी भिड़ाते हैं। सयुंक्त रदीफ-काफियों में कही या लिखी गयी इस ग़ज़ल में अपनी स्वतः स्फूर्त अज्ञानता निभाते हैं|
एक स्वतः स्पफूर्त अज्ञानता को सार्थक और सारगर्भित सिद्ध करने के लिये विज्ञानव्रत का एक कुतर्क इसी विशेषांक में उनके लेख-‘समकालीन ग़ज़ल के परिदृश्य से गुजरते हुए’ में मौजूद है-‘‘ग़ज़ल केवल तकनीक का विषय नहीं, बल्कि एक क्रिएटिव और कल्पनाशील तथा संवेदनशील व्यक्ति की स्वतः स्फूर्त कृति है।’’ देखा जाये तो यही ‘सर्वाधिक लोकप्रिय विधा ’ के रूप में ग़ज़ल के प्रति हिन्दी ग़ज़लकारों की अंधी रति है।
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+ रमेशराज, 15 / 109, ईसानगर , अलीगढ – 202001