हिंदुत्व का राष्ट्रीय एकीकरण एवं सहिष्णुता में योगदान
आमतौर पर हिंदुत्व शब्द का अर्थ कई लोग हिंदूवादी वैचारिक प्रचार-प्रसार से लगा बैठते हैं। लेकिन जहाँ तक मैंने अनुशीलन के दौरान पाया कि हमारे देश में सहस्त्राब्दियों पूर्व से ही आत्मसात करने की परम्परा रही है। चाहे सामाजिक विविधता की स्वीकार्यता हो या राजनीतिक-धार्मिक विभिन्नता की मान्यता, भारत ने सदैव से अपने पीढ़ियों को बाह्य संस्कृतियों,मूल्यों और भावनाओं को अपने सहकारी सभ्यता में समाहित कर लेने की शिक्षा दी है। इसी शिक्षा के बल पर आज भारत न केवल कई सामाजिक और धार्मिक विविधताओं से परिपूर्ण हैं, बल्कि ये सभी भारतीय स्वरूप में ढलकर यहाँ कि उर्वर जीवनशैली में फल-फूल रहे हैं, और आगे भी समृद्ध रहेंगे। भारतवर्ष की यहीं सहकारिता और सहज स्वीकार्यता की भावना ही हिंदुत्व के नाम से जानी जाती है। यदि हम हिंदुत्व के सामान्य विकास प्रक्रिया की बात करें तो तत्कालीन भारत के भू-राजनीतिक सीमाओं में जितने भी बहुआयामी बदलाव हुए, चाहे ये बाह्य घटकों से प्रभावित हो या आंतरिक संवादों और विमर्शों से उत्पादित, सभी ने हिंदुत्व को समय दर समय एक विस्तृत और समृद्ध जीवनशैली प्रदान किया है। कभी-कभी स्वघोषित विद्वत गलियारों से असहिष्णु भारत के समर्थन में आवाजें उठती हैं, भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं का आदिमकाल से ही सम्मान किया जाता रहा इस कारण गाहे-बगाहे ऐसे आवाज उठेंगे। लेकिन ऐसी घटनाएँ उन नेतृत्वकर्ताओं के छिछले और सतही अंतरदृष्टि का द्योतक बन जाती हैं, जिन्हें गौरवमयी भारतीय इतिहास की आधारभूत जानकारी भी नहीं है। उन्हें शायद पता नहीं कि ईरानी, यूनानी, शक, कुषाण, हुण, तुर्क और मुग़ल जातियों ने भारत में न केवल क्रूर आक्रांताओं के रूप में प्रवेश किया बल्कि प्राचीन भारतीय मूल्यों को तात्कालिक तौर पर क्षत-विक्षत करने का भी प्रयास किया, परंतु उनकी सैनिक शक्ति को न केवल भारतीय सांस्कृतिक एकता के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ा अपितु हमारी महान सांस्कृतिक विरासत से प्रभावित होकर उन्होंने स्वयं को भारतीय सांस्कृतिक संस्थाओं में भी रचा-बसा लिया। जहाँ हमारी सभ्यता और संस्कृति ने इनकी मूल पहचान को भारतीय स्वरूप दे दिया वहीं इन आयातित जातियों ने अपनी देशज परम्पराओं से भारतीय सभ्यता और संस्कृति को भी समृद्ध किया। अब यहाँ स्वभाविक तौर पर यह प्रश्न उठता है कि, यदि भारत असहिष्णु रहा है या है तो उपरोक्त जातियाँ आज तक भारत में अस्तित्ववान कैसे हैं? इन आक्रांताओं को भारतीयों ने कैसे अपनी संस्कृति का हिस्सा बनाना स्वीकार कर लिया?
प्राचीन भारतीयों की धार्मिक पहचान मूलतः सनातनी (हिन्दू धर्म) रही है, जबकि वर्तमान भारत में गैर-सनातनी धर्म भी अपनी मूलभूत परम्पराओं को जीवित रखते हुए, कैसे अपनी साख में निरन्तर वृद्धि कर रहे हैं? आखिर भारत ने क्यों बहुसंख्यक हिन्दू जनसंख्या वाला देश होने के पश्चात् भी स्वयं को स्वतंत्रता के पश्चात् पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया? निश्चित रूप से वे इस प्रश्न निरुत्तर होंगे जिन्होंने कुछ चाटुकारों और विदूषकों के राजनीतिक स्वार्थों में फँसकर माँ भारती के संतानों, सम्राट अशोक और हर्षवर्द्धन की पीढ़ियों, महाराणा प्रताप और शिवाजी के बेटे-बेटियों, अशफाकुल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के मानस पुत्रों और पंडित अटल बिहारी वाजपेई, महामनीषी अब्दुल कलाम की परम्पराओं का सम्मान करने वाले देश को असहिष्णु कहा था। क्या उनको या उनके परिवार के किसी सदस्य को अब तक तनिक भी समस्या हुयी जिनकी पत्नियों ने भारत छोड़ने का सलाह तक दे डाला था।ऐसे लोगों को हिंदुत्व की महान परम्पराओं और सदाशयता का अंदाजा तब होगा जबकि वे कुछ दिनों के लिए सीरिया,तुर्की, इराक़ या पाकिस्तान ( और अब अमेरिका भी ) की यात्रा पर चले जाएँ, सारी स्वतंत्रताएँ फुर्र हो जाएँगी तब वहाँ बोलियेगा कि ” बहुत असहिष्णु देश है “, तब पता चलेगा।
शायद वे भूल चुके हैं कि यह भारत के महान सभ्यता की सहृदयता ही है कि किसी भी धर्म,भाषा,पहचान या संस्कृति को खुद ( सनातनी ) की स्वरूप में ढलने के लिए बाध्य नहीं किया गया बल्कि वे स्वतः ही खुद-ब-खुद भारतीयता में ढलते चले गए।आज समस्त विश्व जिन बहुसंख्यकवादी कट्टरता से जूझ रहा है, कदाचित आज तक ऐसी कोई समस्या भारत की बहुसंख्यक आबादी के कारण किसी गैर-बहुसंख्यक विशेष को न तो हुयी है और न ही होगी। जो वर्जनाएँ अन्य देशों में अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों द्वारा थोपे जाते हैं, क्या ऐसी कोई भी घटना भारत में हुयी है, जिसे मानवाधिकारों का हनन कहा जाये? नहीं ऐसी कोई घटना न ही पूर्व में घटित हुयी और न ही भविष्य में ऐसी परिणति होगी। ऐसे किसी भी विचारधारा को हिंदुत्व जीवनशैली नकारता है जिसके परिणामस्वरूप भारत के आखिरी व्यक्ति को भी जरा सी कष्ट पहुँचती है। यहीं मानवीय मूल्य, नैतिक आचार और सामान स्वीकार्यता की भावना हिंदुत्व ही के अनुयायियों के व्यवहार और जीवनचर्या में शामिल है जिससे एक महान और सहिष्णु भारत का निर्माण होता है। ऐसे राष्ट्रों और विचारधाराओं को वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को आत्मसात करने वाली हमारी महान हिंदुत्व की अवधारणा से सिख लेनी चाहिए।तभी समस्त विश्व में लोकतान्त्रिक संस्थाओं, मानवीय गरिमा, अंतर्जातीय-सहअस्तित्व और सहज स्वीकार्यता को प्रसारित कर बहुसंख्यक आबादी से उपजी कट्टरता का शमन किया जा सकता है, और सम्पूर्ण विश्व को सहिष्णुता और भाई-चारा का नया पाठ पढ़ाया जा सकता है।
प्राचीन काल से ही इसी सामंजस्य के साथ भारत विभिन्न
भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधता को खुद में समाहित किये हुए एकीकृत और संगठित है,जिनके स्वयं के अलग-अलग हित और मान्यताएं हैं। फिर भी भारत एकता के सूत्र में कैसे बधा है? वो कौन से तत्व हैं जो समस्त भारत में प्राणवायु की तरह प्रवाहित हैं? इसका उत्तर केवल हिंदुत्व की महान वैचारिक परम्परा के पास ही है, कि जैसे भारत का अतीत स्वर्णिम रहा है ठीक वैसे ही इसका भविष्य भी उज्ज्वल रहेगा।साथ ही साथ सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित करने वाले ” वन्डरफुल इंडिया ” का मूलतत्व ” हिंदुत्व जीवनशैली ” आने वाली भारतीय पीढ़ियों की धमनियों में भी निरंतर प्रवाहित होकर विश्व को सहृदयता, स्वीकार्यता,समानता और सहिष्णुता का सन्देश देती रहेगी।
निःसन्देह ही हिंदुत्व,भारत के एकिकृत-परम्पराओं का आधारभूत तत्व है और सहिष्णुता, हमारे जीवनशैली की महान उत्सवधर्मिता है।
प्रसान्त सिंह
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