*हिंदी भाषा में नुक्तों के प्रयोग का प्रश्न*
हिंदी भाषा में नुक्तों के प्रयोग का प्रश्न
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सर्वविदित है कि हिंदी भाषा का एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसके लिखे जाने के लिए नुक्तों के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है। अतः हिंदी भाषा में नुक्ते का प्रयोग नहीं होता । जब प्रयोग ही नहीं होता तो भाषा के स्तर पर नुक्तों के बारे में समझाने की भी कोई आवश्यकता हिंदी भाषा के कोर्स में होने का प्रश्न ही नहीं होता। इसीलिए हिंदी के विद्यार्थियों को किसी भी स्तर पर नुक्तों के प्रयोग से अवगत नहीं कराया जाता । यह बिल्कुल सही व्यवस्था है और इसमें बदलाव का कोई कारण नजर नहीं आता ।
फिर भी हम देखते हैं कि हिंदी में नुक्तों का प्रयोग अनेक स्थानों पर देखने को मिल जाता है । इसका कारण क्या है ? दरअसल जब देवनागरी लिपि में उर्दू भाषा का प्रयोग किया जाता है ,तब लेखकों को नुक्ते लगाने की आवश्यकता महसूस होती है।
उर्दू भी एक तरह से हिंदी ही है । फर्क केवल इतना है कि उर्दू में अरबी और फारसी के शब्दों की बहुलता है । जब भारत के बादशाहो और नवाबों ने अपनी राजकीय भाषा के तौर पर फारसी को मान्यता दी, फारसी का बोलबाला चारों तरफ होने लगा और जब यह बादशाह और नवाब फारसी भाषा और लिपि में लिखे गए लेखन को ही अच्छी प्रकार से समझ पाने में समर्थ दिखे, तो हिंदी के फारसीकरण का एक दौर शुरू हो गया । इस दौर में हिंदी भाषा में यथासंभव शब्द अरबी-फारसी के रखे गए तथा हिंदी को फारसी लिपि में प्रस्तुत किया जाने लगा ।
इस तरह उर्दू और हिंदी के अंतर में दो कारण हैं :-
(1) फारसी लिपि का प्रयोग
(2) अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग
जब फारसी लिपि में अरबी-फारसी के शब्दों की बहुतायत के साथ हिंदी लिखी गई ,तब वह उर्दू कहलाई और उसमें नुक्तों का प्रयोग होना अनिवार्य था ,क्योंकि अरबी-फारसी के शब्द अपनी भाषागत विशेषता के साथ नुक्तों का प्रयोग करने के अभ्यस्त थे ।
इसी पृष्ठभूमि में हम ऐसे उर्दू लेखन में, जो देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया जाता है, नुक्तों के प्रयोग की प्रासंगिकता को समझ सकते हैं । आजकल देवनागरी लिपि में बड़ी संख्या में उर्दू लेखन सामने आ रहा है । ऐसे लोग नुक्ता लगाने के प्रति बहुत आग्रहशील रहते हैं ।
गजलों के मामलों में तो यह आमतौर पर देखा जाता है कि नुक्ता लगाने अथवा न लगाने को एक दोष के रूप में भाषा के स्तर पर रेखांकित किया जाता है । अपनी रचना का शीर्षक “गजल” रखते ही हिंदी रचनाकार नुक्तों के फेर में पड़ जाता है और उसकी रचना की विषय-वस्तु अथवा शिल्प का आकलन तो बाद की बात है ,सबसे पहले नुक्तों के मामले में ही उसकी कमियाँ सामने रखकर उसे खारिज करने में भी कोई कमी नहीं रखी जाती है । इन सब कारणों से यह आवश्यक हो जाता है कि इस बात को समझा जाए कि हिंदी में अरबी-फारसी के अप्रचलित शब्दों का प्रयोग कहाँ तक उचित है ? नुक्ते लगाने का आग्रह तभी जोर पकड़ता है जब अप्रचलित अरबी-फारसी के शब्द लेखन में प्रयोग में लाए जाते हैं ।
हिंदी मेंअरबी-फारसी के प्रचलित शब्द बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं । पिछले तीन सौ वर्षों में नवाबों और बादशाहों के शासनकाल में यह शब्द राज्याश्रय पाकर इतने अधिक घुल-मिल चुके हैं कि अब यह पराए नहीं लगते । एक तरह से यूँ कहिए कि हिंदी ने इन्हें आत्मसात कर लिया है । दिल ,दुनिया ,दर्जी ,दुकान, दरवाजा आदि सैकड़ों शब्द इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं । न इन्हें समझने में किसी को दिक्कत आती है ,न समझाने के लिए कोई प्रयत्न किया जाता है । मुश्किल तो अरबी-फारसी के अप्रचलित शब्दों को हिंदी के नाम पर प्रस्तुत करने में है । उनके साथ नुक्ता लगाने की अनिवार्यता का आग्रह और भी अनुचित हो जाता है । इन सब पूर्वाग्रहों से बचने के लिए ही हमारे जैसे बहुत से लेखक “गजल” के स्थान पर “गीतिका” का शब्द-प्रयोग करना उचित समझते हैं । इससे अकारण की नुक्ताचीनी से बचा जाएगा ।
कुल मिलाकर मेरे विचार से
(1) हिंदी में अरबी-फारसी के अप्रचलित शब्दों के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है । इनसे बचा जाना चाहिए ।
(2) अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों को प्रयोग में लाते समय नुक्ता लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
(3) जो लोग उर्दू-लेखन को फारसी लिपि के स्थान पर देवनागरी लिपि में प्रस्तुत कर रहे हैं और जिनके लेखन में अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार है ,उन्हें अगर लगता है कि नुक्ता लगाना जरूरी है तब यह उनकी स्वतंत्रता है कि वह चाहें तो नुक्ता लगाएँ अथवा न चाहे तो न लगाएँ।
कुल मिलाकर नुक्ते के आधार पर हिंदी लेखन में भाषागत दोष ढूँढना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451