हिंदी दिवस की बधाई, कितनी खरी
हिंदी दिवस की बधाई, कितनी खरी?
-विनोद सिल्ला
जब किसी विदेशी को हिंदी बोलते हुए सुनते हैं तो बड़ा कर्णप्रिय लगता है। किसी अफगानिस्तानी या पाकिस्तानी को उर्दू मिश्रित हिन्दी बोलते हुए सुनते हैं तो प्रतीत होता है कि भले ही वह विदेशी है, लेकिन हम एक ही जड़ से अंकुरित हुए हैं। आज 14 सितंबर है। आज का दिन भारत वर्ष में हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह भी विडंबना है कि ज्यादातर भारतीय हिंदी बोलते, लिखते, पढ़ते व समझते हैं। फिर भी हिंदी दिवस मनाया जाता है। हिंदी को संरक्षण देने का आह्वान किया जाता है। जिस भाषा को बोलने वाले कम हों, उसे संरक्षण की आवश्यकता होती है। लेकिन यहां तो स्थिति विपरीत है। विगत में भाषाओं का उद्भव, उत्थान और पतन होता रहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता काल के जो शिलालेख मिले हैं। उन लिपियों को आज तक नहीं पढ़ा गया। जैन और बौद्ध काल में पालि भाषा संपन्न भाषा होती थी। जिसे आज मुट्ठीभर लोग ही लिख, बोल या समझ पाते हैं। अपभ्रंश, प्राकृत समेत अनेक भाषाएं, कभी संपन्न भाषा होती थीं। जो धीरे-धीरे अपना प्रभाव खोती गई। अतीत की विषय-वस्तु बन कर रह गईं। सौ साल पहले भारत में उर्दू भाषा बड़ी संपन्न भाषा होती थी। सत्तर-अस्सी के दशक की या उनसे पुरानी फिल्में गवाही दे रही हैं कि भारत में उर्दू भाषा संपन्न भाषा थी। किसी भाषा की संपन्नता व विपन्नता या उत्थान-पतन, शासन- प्रशासन द्वारा दिए गए संरक्षण पर निर्भर करती है।
आज शासन-प्रशासन हिंदी भाषा को संरक्षण देने का भरपूर दिखावा और पाखंड कर रहा हैं। सरकारें हिंदी पखवाड़ा मनाने की घोषणा करके अपना काम संपन्न हुआ, समझ कर निश्चिंत हो जाती हैं। इस घोषणा से दरबारी परम्परा के लेखक अपना चेहरा चमकाने में कामयाब हो जाते हैं। जो अंग्रेजी भाषा में हस्ताक्षर करके पारिश्रमिक व भत्ते पा जाते हैं। हिंदी दिवस पर हर शहर, हर कस्बे में आयोजन होते हैं। जिनमें बड़े-बड़े नाम के धनी लोग हिंदी की महिमा का गुणगान करते हैं। हिंदी की विशेषता व वैज्ञानिकता पर अपना पत्र पढ़ जाते हैं। भले ही उनके बेटे-बेटी या पौत्र-पौत्री उन कॉन्वेंट स्कूल की शोभा बढ़ा रहे हों। जिनमें हिंदी बोलने पर दंडित किया जाता हो। जो अनुवादक की सहायता के बिना पैंतीस से आगे की गिनती हिंदी में नहीं बोल पाते हों। उन बच्चों के बाप-दादा हिंदी संरक्षण पर लम्बा भाषण पेल जाएंगे। हिंदी दिवस की शुभकामना दे जाएंगे। भले ही लार्ड मैकाले का अनुसरण करके जीवन-यापन किया हो, लेकिन हिंदी दिवस पर लार्ड मैकाले को पानी पी-पीकर कोसेंगे। लार्ड मैकाले को दोष देने वालो, टिकट, कम्प्यूटर, लैपटॉप, कार, पेनड्राइव, मेमोरी कार्ड, समेत हजारों शब्द जो साधारण बोल-चाल में प्रयोग में लाए जाते हैं। उनके हिन्दी नाम नहीं रख पाए।
हिंदी दिवस पर हम हर वर्ष आयोजन करते हैं। जिनमें वक्ताओं से आग्रह किया जाता है कि अपने प्रस्तुतीकरण में हिंदी भाषा का ही प्रयोग करें। तो वे पंख कटे पक्षी से असहाय से नजर आते हैं। हिंदी की दुर्दशा के लिए वे साहित्यकार या हिंदी प्रेमी पूरी तरह उत्तरदायी हैं, जिन्होंने हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाकर आम पाठक और अहिंदी भाषियों से दूर कर दिया। जिसे अनुवादक की सहायता बिना नहीं समझा जा सकता। यही स्थिति उर्दू की है। उन्होंने भी उर्दू को फारसीनिष्ट बनाकर उर्दू का अहित किया। गैरउर्दू भाषियों से उर्दू को दूर कर दिया। कई राष्ट्रीय समाचार-पत्र समूह समूह भी हिंदी पखवाड़ा मनाने का ढोंग करते हैं। हर रोज अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने वाले निजी विद्यालयों के छात्र-छात्राओं व अध्यापक- अध्यापिकाओं की हिंदी -पखवाड़े के संदर्भ में सचित्र टिप्पणी प्रकाशित करके, उन विद्यालयों का नाम प्रमुखता से प्रचारित कर रहे हैं। हिंदी -पखवाड़ा मनाने का ढोंग करके निजी लाभ ले व दे रहे हैं। टिप्पणीकार बच्चों व अध्यापक/अध्यापिकाओं से उनसठ बोलोगे तो पूछेंगे छह-नौ या सात-नौ, यही स्थिति उनहतर में है। नवासी बोलोगे तो पूछेंगे आठ-नौ या सात- नौ, यही स्थिति उनासी व निन्यानवे में है। मेरा मानना है कि हिंदी भाषा भी पूंजीवाद की भेंट चढ़ रही है। फिल्म जगत के लोग भी हिंदी का दिया खा कर, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने में शान समझते हैं। क्योंकि कार्पोरेट घराने हिंदी कम समझते हैं। यही हालात पत्रकारिता राजनीतिक-उद्योग के हैं। जहां पर उसी भाषा का प्रयोग किया जाता है। जो कार्पोरेट घरानों को अच्छे ढंग से समझ आ सके।
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