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12 Aug 2020 · 2 min read

हिंदी का उपेक्षीकरण/Brijpal Singh

– हिंदी का उपेक्षीकरण-

जी हाँ लिखे शीर्षक ”हिंदी का उपेक्षीकरण” पर ही मैं बात करने जा रहा हूँ – हिंदी बोलने/लिखने और समझने वालों के लिए मगर ये संपूर्ण लेख पढ़ने और समझने वालों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे हिंदी समझते हैं सम्भवतः हिंदी में ही बतियाते हैं, वरन इस लेख का तात्पर्य उन सभी जनमानस के लिए है जो शोसल मीडिया पर हिंदी में ही बांचने का साहस मात्र जुटा पाते हैं या कुछ भी लिख देते हैं; हिंदी में।

कब मैं का प्रयोग होता है और कहाँ मे का! ऐसे तमाम शब्द शोसल मीडिया के लेखों/पोस्टों पर आपको मोफ़त में देखने और पढ़ने को मिल जाते हैं, लिखने वाले को ज़रा सी ख़बर नहीं रहती कि मुझे कब मैं लिखना है और कब में।
इसी तरह तमाम शब्द हैं जो सरेआम इस वर्चुअल दुनिया में दिखाई पड़ते हैं या दिख जाते हैं, उन्हें अगर इस मामूली सी बात पर सलाह दें या विश्लेषण करने को कहें तो वो आग बबूला हो जाते हैं बाबत उसके उनकी प्रतिक्रिया ऐसी आती है मानो वे हिंदी में डबल एम. ए किये हों या पीएचडी धारक हों।

बात कौमा, अर्धविराम, पूर्णविराम, विसम्यबोधक, हलन्त इत्यादि की न ही करें तो बेहतर है क्योंकि अगर शब्दों की ही शुद्धता न हो तो ये बारीकी वाला व्याकरण की बात करना महज़ हास्यबोधक सिद्ध होगा। ताज़्ज़ुब ये देख कर नहीं होता कि सब लोग ऐसा लिखते हैं, ताज़्ज़ुब तो तब होता है जब अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी अशुद्धता को परोसे जा रहे हैं, इनमें कई तो अच्छे लेखक, ज्ञानी, भाषाविद भी शामिल हैं, अच्छे लेखक इसलिए क्योंकि उन्हें छंद शास्त्रों, अलंकारों, वर्तनियों, बह्रों, मापनी का ज्ञान होते हुवे भी वे शब्दों को शुद्ध रूप से नहीं लिखते या लिख ही नहीं पाते।

मेरा इस लेख का आशय स्पष्ट है कि बहुत सारे लोग हैं जो मेरी मित्रता सूची में भी हैं और सम्भतः जो ऐसा करते हैं; वे लोग स्व: मनन करके खुद को सुधार सकते हैं, ऐसा करने से आप अपने भविष्य को भी कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रुप से बेहतर बनाने या अच्छे ज्ञान परोसने का काम करेंगे। ये कार्य भी कोई समाजसेवा से कम नहीं ऐसा मैं मानता हूँ आप माने या न माने वो आपकी मर्जी, आप स्वतंत्र हैं।

होता कुछ नहीं बस कई दफ़े खुद पर शंका हो जाती है जब ये सब माजरा मैं देखता हूँ तब उस वाक्य को गूगल बाबा में सर्च करना पड़ता है, बहुत सारे जगहों पर एक जैसी स्पेलिंग होने पर भी मैं उसे डिक्शनरी में ढूंढता हूँ फिर जाकर तसल्ली होती है, अमूमन मैंने देखा है लोगो में सोचने की क्षमता जितनी भी हो, मस्तिष्क में उनके कितने ही विचार आते हों, किसी और को समझाने का जोश औऱ फालतू में रायचंद बनने का जोश जितना भी हो बस खुद वे कभी समझना नहीं चाहते; और ये बात उन पर ज्यादा लागू होती है जो ऐसे कृत्यों में विलक्षित होते हैं। अब कई इधर भी ज्ञान पेलने आ जाएंगे।

©️®️ Brijpal Singh ।

Language: Hindi
Tag: लेख
2 Likes · 2 Comments · 271 Views
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