#हा ! प्राणसखा . . . . . !
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● १-१-१९७३ को लिखा गया था यह गीत ●
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◆ #हा ! प्राणसखा . . . . . ! ◆
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बिन काजल कजरारी पलकों ने
तपती-जलती मरुभूमि में
जल-शीतल कितना बरसाया
उर की कांखें तक भीग गईं
दल-बादल का मन भर आया
ये कैसा विधि का विधान हुआ
हा ! कैसा शर-संधान हुआ
हुआ तार-तार मेरा चीर-चीर
बसी पोर-पोर में पीर-पीर
कैसा निर्दय मनउपवन पर पतझर छाया
उर की कांखें तक भीग गईं . . . . .
वो लताकुञ्ज वो नदीतीर
वो मधुर मिलन औ’ मधु-समीर
वो खिलती चाँदनी रातों में
बस बीत गई जो बातों में
तिरती-उतराती यादों ने कब-कब कितना तड़पाया
उर की कांखें तक भीग गईं . . . . .
पथ-प्रदीप सब शूल हुए
तुम दिनकर दिन में हूल हुए
तुम्हें देख कुसुम जो खिलता था
हा ! प्राणसखा वो झर आया
उर की कांखें तक भीग गईं
दल-बादल का मन भर आया . . . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२