हास्य रस एवं हिंदी साहित्य – एक विवेचना
भारतीय काव्याचार्यों ने रसों की संख्या प्राय: नौ ही मानी है जिनमें से हास्य रस प्रमुख रस है। जैसे जिह्वा के आस्वाद के छह रस प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार हृदय के आस्वाद के नौ रस प्रसिद्ध हैं। जिह्वा के आस्वाद को लौकिक आनंद की कोटि में रखा गया है क्योंकि उसका सीधा संबंध लौकिक वस्तुओं से है। हृदय के आस्वाद को अलौकिक आनंद की कोटि में माना जाता है क्योंकि उसका सीधा संबंध वस्तुओं से नहीं किंतु भावानुभूतियों से है। भावानुभूति और भावानुभूति के आस्वाद में अंतर है। भारतीय काव्याचार्यों ने रसों की संख्या प्राय: नौ ही मानी है क्योंकि उनके मत से नौ भाव ही ऐसे हैं जो मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों से घनिष्ठतया संबंधित होकर स्थायित्व की पूरी क्षमता रखते हैं और वे ही विकसित होकर वस्तुत: रस संज्ञा की प्राप्ति के अधिकारी कहे जा सकते हैं। यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी से निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है और इसके विश्लेषण में पर्याप्त मनन चिंतन किया है। इस मनन चिंतन को पौर्वात्य काव्याचार्यों की अपेक्षा पाश्चात्य काव्याचार्यों ने विस्तारपूर्वक अभिव्यक्ति दी है, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने इस तत्व का पूरी व्यापकता के साथ अध्ययन कर लिया है और या हास्यरस या हास की काव्यगत अभिव्यंजना की ही कोई ऐसी परिभाषा दे दी है जो सभी सभी प्रकार के उदाहरणों को अपने में समेट सके। भारतीय आचार्यों ने एक प्रकार के सूत्ररूप में ही इसका प्रख्यापन किया है किंतु उनकी संक्षिप्त उक्तियों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी निष्कर्षों और तत्वों का सरलतापूर्वक अंतर्भाव देखा जा सकता है।
हास्यरस के लिए भरत मुनि का नाट्यशास्त्र कहता है-
विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधान वेसैश्च
विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस: स्मृतो हास्य:।।
भावप्रकाश में लिखा है-
प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।
साहित्यदर्पणकार का कथन है-
वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते विकृताकारवाग्वेशचेष्टादे: कुहकाद् भवेत्॥
दशरूपककार की उक्ति है-
विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा
हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।।
तात्पर्य यह है कि हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्रेक विकृत आकार, विकृत वेष, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थविशेष, विकृत वाणी, विकृत चेष्टा आदि द्वारा होता है – इन विकृतियों से युक्त हास्यपात्रता चाहे अभिनेता की हो, चाहे वक्ता की हो, चाहे अन्य किसी की हो। विकृति का तात्पर्य है प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा वैचित्र्य, कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर न जान पड़े। इन लक्षणों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जहाँ तक उनका संबंध हास्य विषयों से है। ऐसा हास जब विकसित होकर हमें कविकौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में, अथवा आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली के अनुसार, मुक्त दशा में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है।
हास के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष रहता है। घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी परंतु उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण हँसी जगा देगा; उसका व्यवहार हास की जननी हो जाएगा। युवा व्यक्ति शृंगार करे तो फबने की बात है किंतु जर्जर बुड्ढे का शृंगार हास का कारण होगा; कुर्सी से गिरनेवाले पहलवान पर हम निश्चित ही हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी। यह पहले ही कहा गया है कि हास का आधार प्रीति पर होता है न कि द्वेष पर, अतएव यदि किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटुक्ति के रूप में नहीं किंतु प्रियोक्ति के रूप में होगी, उसकी तह में जलन अथवा नीचा दिखाने की भावना न होकर विशुद्ध संशुद्धि की भावना होगी। संशुद्धि की भावनावाली यह प्रियोक्ति भी उपदेश की शब्दावली में नहीं किंतु रंजनता की शब्दावली में होगी।
हास्य के भेदों पर भी आचार्यों ने विचार किया है। उन्होंने हास्य के दो भेद किए हैं। एक है आत्मस्थ और दूसरा है परस्थ। हास्यपात्र की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है स्वत: उस पात्र का हँसना और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसाना। सामाजिकों या सहृदय श्रोताओं, अथवा नाट्यदर्शकों की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है अन्यों की हँसी के बिना स्वत: उनमें उद्भुत हास्य और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसता हुआ देखकर उनमें उत्पन्न हास्य। दृष्टिकोणों का यह अंतर समझ लेने पर इन दोनों शब्दों के अर्थों का विचार सरलतापूर्वक समाप्त किया जा सकता है। फिर, आचार्यों ने हास्य के छह भेद किए हैं – स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अवहसित और अतिहसित; जिन्हें भावभेद नहीं किंतु हसनक्रिया के ही भेद मानना पड़ेगा। संक्षेप में, आँखों की मुस्कराहट स्मित है। बत्तीसी दीख पड़ना हसित है, हो ही की सी ध्वनि निकल पड़ना विहसित है। अंग हिल उठना अवहसित है। पेट पकड़नेवाली हँसी अवहसित है और पूरे ठहाकेवाली झकझोरकारिणी पसलीतोड़ हँसी अतिहसित है। साहित्यदर्पणकार ने स्मित और हसित को श्रेष्ठों के योग्य कहा है। विहसित और उपहसित को मध्यम वर्गीय लोगों के योग्य और अपहसित तथा अतिहसित को नीच लोगों के योग्य कहा है। रंगमंच में दर्शकों के लिए भी हँसने की एक मर्यादा होनी चाहिए, उस दृष्टि से उत्तम, मध्यम, अधम की यह बात भले ही मान ली जा सकती है। नहीं तो झकझोर देनेवाली हँसी केवल नीचों की वस्तु समझ लेने से उच्च वर्गीय लोक स्वास्थ्य के एक महत्वपूर्ण तत्त्व से वंचित रह जाऐंगे। डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने उत्तम, मध्यम, अधम के प्रभाव की इष्टि से हास्य के तीन भेद माने हैं और इन्हें आत्मस्थ, परस्थ से गुणित करके हसन क्रिया के बारह भेद लिखे हैं। स्मित, हसित आदि हसनक्रियाभेदों को हास्य का अनुभाव ही कहा जा सकता है। इन अनुभावों का वर्णन मात्र कर देना अलग बात है और अपनी रचना द्वारा सामाजिकों में ये अनुभाव उत्पन्न करा देना अलग बात है। हास्यरस की सफल रचना वह है जो हास्यरस के अनुभाव अनायास उत्पन्न करा दे।
विदेशी विद्वानों के विचार से हास्य के पाँच प्रमुख भेद हैं जिनके नाम हैं – ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन)। ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि बिट, सैटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है जिनमें पिछले दो का उद्देश्य केवल संतुष्टि ही न होकर संशुद्धि भी रहा करता है। पैरोडी (रचनापरिहास अथवा विरचनानुकरण) भी हास्य की एक विधा है जिसका उक्तिकौशल से संबंध है किंतु जिसका प्रधान उद्देश्य है संतुष्टि। आइरनी का अर्थ परिहास चिंत्य है। उपहास में, हमारे विचार से, आइरनी (वक्रोक्ति) का भी अंतर्भाव मान लिया जाना चाहिए अन्यथा वह हास्य की कोटि से बाहर की वस्तु हो जाएगी। विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है।
भारतीय साहित्यपंडितों ने जिस प्रकार शृंगार के साथ न्याय किया है उसका दशमांश भी हास्य के साथ नहीं किया, यद्यपि भरत मुनि ने इसकी उत्पत्ति शृंगार से मानी है अर्थात् इसे रति या प्रीति का परिमाण माना है और इसे शृंगार के बाद ही नवरसों में महत्त्व का दर्जा दिया है। आनंद के साथ इसका सीधा संबंध है और न केवल रंजनता की दृष्टि से किंतु उपयोगिता की दृष्टि से भी इसकी अपनी विशिष्टता है। यह तन मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है, आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग पर समाजसुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता हुआ जनस्वास्थ्य और लोकस्वास्थ्य का उपकारक बनता है। यह निश्चित है कि संस्कृत साहित्य तथा हिंदी साहित्य में इस हास्यरस के महत्त्व के अनुपात से इसके उत्तम उदाहरणों की कमी ही है। फिर भी ऐतिहासिक सिंहावलोकन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य में हास्यरस का प्रवाह वैदिक काल से लेकर आज तक निरंतर चला आ रहा है, यद्यपि वर्तमान काल के पूर्व उसें विविधता इतनी नहीं जितनी आज दिखाई पड़ रही है।
हास्यरस की धारा के वैविध्य (अथवा भेदों) को विषय और व्यंजना (अर्थात् अर्थ और वाक्) की दृष्टि से देखा जा सकता है। विषय को हम आकृति, प्रकृति, परिस्थिति, वेश, वाणी, व्यवहार और वस्तु में विभक्त कर सकते हैं। आकृति का बेतुकापन है मोटापा, कुरूपता, भद्दापन, अंगभंग, बेजा नजाकत, तोंद, कूबड़, नारियों का अत्यंत कालापन, आदि। इनमें से अनेक विषयों पर हास्यरस की रचनाएँ हो चुकी हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि एक समय का हास्यास्पद विषय सभी समयों का हास्यास्पद विषय हो जाए, ऐसा नहीं हुआ करता। आज अंगभंग, निर्मुच्छता आदि हास्य के विषय नहीं माने जाते अतएव अब इनपर रचनाएँ करना हास्य की सुरुचि का परिचायक न माना जाएगा। प्रकृति या स्वभाव का बेतुकापन है उजड्डपन, बेवकूफी, पाखंड, झेंप, खुशामद, अमर्यादित फैशनपरस्ती, कंजूसी, दिखावा पंडितमन्यता, अतिहास्यपात्रता, अनधिकारपूर्ण अहंमन्यता, आदि। आकृति के बेतुकेपन की अपेक्षा प्रकृति के बेतुकेपन को अपना लक्ष्य बनाकर रचनाएँ करना अधिक प्रशस्त है। रचनाकारों ने कंजूसी आदि की वृत्तियों पर अच्छे व्यंग्य किए हैं, परंतु अभी इस दिशा में अनेक विषय अछूते ही छूट गए हैं। परिस्थिति का बेतुकापन है गंगामदारी जोड़ा (उदाहणार्थ “कौवा के गले सोहारी”, हूर के पहल में लंगूर”, “पतलून के नीचे धोती”, “गदहे सों बाचालता अरु धोबी सों मौन”, आदि) समय की चूक (अवसर चूकी ग्वालिनी, गावै सारी रात) समाज की असमंजसता में व्यक्ति की विवशता आदि। इसका अत्यंत सुंदर उदाहरण है रामचरितमानस का केवट प्रसंग जिसमें राम का मर्म समझ जाने की डींग हाँकनेवाले मूर्ख किंतु पंडितमन्य केवट को राम कोई उत्तर नहीं दे पाते और एक प्रकार से चुपचाप आत्मसमर्पण कर देते हैं। यह परिस्थिति का व्यंग्य था। वेश का बेतुकापन, हास्पात्र नटों और विदूषकों का प्रिय विषय ही रहा है और प्रहसनों, रामलीलाओं, रासलीलाओं, “गम्मत”, तमाशों आदि में आसानी से दिया जा सकता है। धर्मध्वजियों (बगुलाभक्तों का) वेश, अंधानुकरण करनेवाले फैशनपरस्तों का वेश, “मर्दानी औरत” का वेश, ऐसे बेतुके वेश हैं जो रचना के विषय हो सकते हैं। वेश के बेतुकेपन की रचना भी आकृति के बेतुकेपन की रचना के समान प्राय: छिछले दर्जे की होगी। वाणी का बेतुकापन है हकलाना, बात बात पर “जो है सो” के सदृश तकियाकलाम लगाना, शब्दस्खलन करना (“जल भरो” की जगल “भल जरो” कह देना), अमानवी ध्वनियाँ (मिमियाना, रेंकना, स्वरवैषमय अथवा फटे बँस की सी आवाज, बैठे गले की फुसफुसाहट आदि), शेखी के प्रलाप, गपबाजी (जो अभिव्यंजना की विधा के रूप की न हो), पंडिताऊ भाषा, गँवारू भाषा, अनेक भाषा के शब्दों की खिचड़ी, आदि। व्यवहार का बेतुकापन है असमंजस घटनाएँ, फूहड़ हरकतें, अतिरंजना, चारित्रिक विकृति, सामाजिक उच्छ्रंखलताएँ, कुछ का कुछ समझ बैठना, कह बैठना या कर बैठना, कठपुतलीपन (यंत्रवत् व्यवहार जिसें विचार या विवेक का प्रभाव शून्यवत् रहता है) इत्यादि। हास्यरस की अभिव्यंजना के लिए, चाहे वह परिहास की दृष्टि से (संतुष्टि की दृष्टि से) हो चाहे उपहास की दृष्टि से (संशुद्धि की दृष्टि से), व्यवहार का बेतुकापन ही प्रचुर सामग्री प्रदान कर सकता है। वस्तु की दृष्टि से मनुष्य ही क्यों, देव दानव (विष्णु, शंकर, राम, कृष्ण, रावण, कुंभकर्ण आदि) पशु पक्षी (कुत्ते, गधे, ऊँट, उल्लू, कौवा आदि), खटमल मच्छर, झाडू, टोकनी, प्लेट राशनिंग आदि अनेक विषयों पर सफलतार्पूक कलमें चलाई गई हैं। परंतु इन वस्तुओं और विशेषत: इष्ट देवों एवं प्रशासनिक व्यंगों के साथ मजाक जहाँ तक प्रीतिभाव को लेकर होगा, वहीं तक हास्यरस की कोटि का अधिकारी कहा जाएगा। खीझभरी अन्य रचनाएँ रौद्र, वीभत्स या अन्य रसों की कोटि में पहुँच जा सकती हैं।
अभिव्यंजना में प्रत्याशित का वैपरीत्य अनेक प्रकार से देखा और दिखाया जा सकता है। इसे बेतुकापन, विकृति, असमंजसता आदि शब्दों से ठीक ठीक नहीं समझाया जा सकता। यह वह वाक्कौशल है जिसके लिए रचनाकार में भी पर्याप्त प्रतिभा अपेक्षित होती है और उस रचना के द्रष्टा, श्रोता या पाठक में भी। जिस सामाजिक (द्रष्टा, श्रोता या पाठक) में हास्य की इच्छा और आशा न होगी, स्वभाव में विनोदप्रियता और हास्योन्मुखता न होगी तथा बुद्धि के शब्दसंकेतों और वाक्यगत अंगों को समझने की क्षमता न होगी, समझना चाहिए कि उसके लिए हास्यरस की रचनाएँ है ही नहीं। इसी प्रकार जिस कलाकार (कवि, लेखक या अभिनेता) में परिष्कारप्रियता, प्रत्युत्पन्नमतित्व और शब्द तौलने की कला नहीं है वह हास्यरस का सफल लेखक नहीं हो सकता। सफल लेखक अप्रत्याशित शब्दाडंबर के सहारे, शब्द की अप्रत्याशित व्युत्पत्ति के सहारे (जैसे-को घाटे ये वृषभानुजा वे हलधर के बीर-बिहारी); अप्रत्याशित विलक्षण उपमाओं आदि अलंकारों के सहारे (जैसे-न साहेब ते सूधे बतलाएँ, गिरी थारी अइसी झन्नायें, कबौं छउकन जइसी खउख्यायें, पटाका अइसी दगि दगि जाएँ-रमई काका, मन गाड़ी गाड़ी रहै प्रीति क्लियर बिनु लैन, जब लगि तिरछे होत नहिं सिंगल दोऊ नैन-सुकवि); विलक्षण तर्कोक्तियों के सहारे (जैसे हाथी के पदचिह्रों के लिए लालबुझक्कड़ी तर्क पाँव में चक्की बाँध के हिरना कुदा होय); वाग्वैदग्ध्य (विट्) की अनेक विधाओं के सहारे यथा, (1) अर्थ के फेर बदल के सहारे (जैसे-“भिक्षुक गो कितको गिरिज? सुतौ माँगन को बलि द्वारे गयो री” सागर शेल सुतान के बीच यों आपस में परिहास भयो री; (2) प्रत्युतर में नहले की जगह दहला लगाने की कला के सहारे (जैसे-गावत बाँदर बैठ्यो निकुंज में ताल समेत, तैं आँखिन पेखे; गाँव में जाए कै मैं हू बछानि को बैलहिं बेद पढ़ावत देखे – काव्यकानन); सैटायर के सहारे (जैसे-रामचरितमानस के शिवबरात प्रसंग में विष्णु की उक्ति “”कि बर अनुहारि बारात न भाई, हँसी करइइहु पर पुर जाई)””, कृष्णायन में उद्धव की उक्ति की भवन जरैहैं मधुपुरी, श्याम बजैहैं बेनु? भवानीप्रसाद मिश्र जी का गीतफरोश आदि), कटाक्ष (आइरानी) के सहारे (जैसे, करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहिं, रे गंधी मतिअंध तू अतर दिखावत काहि – बिहारी; मुफ्त का चंदन घस मेरे नंदन – लोकोक्ति; मुनसी कसाई की कलम तलवार है – भड़ोवा संग्रह,; विरूपरचनानुकरण (पैरोडी) के सहारे (जैसे, नेता ऐसा चाहिए जैसा रूप सुभाय, चंदा सारा गहि रहै देय रसीद उड़ाय – चोंच, बीती विभावरी जाग री; छप्पर पर बैठे कावें कावें करते हैं कितने काग री-बेढब); विरूप वचनानुकरण के सहारे (जिसे भी विरूपरचनानुकरण के समान पैरोडी की एक विधा ही समझना चाहिए – जैसे पं. नेहरु की भाषण परिपाटी की नकल, किसी अहिंदीभाषी की प्रांतीय अथवा जातीय विशेषताओं से युक्त भाषा की नकल, किसी के तकियाकलामों की नकल); तथा इसी प्रकार की अनेकानेक अभिव्यंजना शैलियों से हास्यरस का उद्रेक कराया करते हैं।
प्रभाव की दृष्टि से हमारी समझ में हास्यरस या तो विशेषत: परिहास की कोटि का होता है या उपहास की कोटि का। इन दोनों शब्दों को हमने परंपरागत अर्थ में सीमाबद्ध नहीं किया है। जो संतुष्टि प्रधान काव्य है उसे हम परिहास की कोटि का मानते हैं और जो संशुद्धि प्रधान है उसे उपहास की कोटि का। अनेक रचनाओं में दोनों का मिश्रण भी हुआ करता है। परिहास और उपहास दोनों के लिए सामाजिकों की सुरुचि का ध्यान रखना आवश्यक है। मांसल शृंगारपरक हास, आजकल के शिष्ट समाज को रुचिकर नहीं हो सकता। देवता विषयक व्यंग्य सहधर्मियों को ही हँसाने के लिए हुआ करता है। उपहास के लिए सुरुचि का ध्यान अत्यंत आवश्यक है। मजा इसमें ही है कि हास्यपात्र (चाहे वह व्यक्ति हो या समाज) अपनी त्रुटियाँ समझ ले परंतु संकेत देनेवाले का अनुगृहीत भी हो जाए और उसे उपदेष्टा के रूप में न देखे। बिना व्यंग्य के हास को परिहास समझिए, चाहे वह वर्णनात्मक हो चाहे वार्तालाप की कोटि का और अपने पर अथवा अन्य पर, विशेषत: अन्य पर, व्यंग्य करके जो प्रभाव दिखाया जाता है वह उपहास है ही। बिट, ह्यूमर, पैरोडी आदि के सहारे उत्पन्न वह हास जो विशुद्ध संतुष्टि की कोटि का है, परिहास ही कहा जाएगा। अनुभाव की दृष्टि से हास्यरस को मृदुहास की कोटि का समझना चाहिए या अट्टास की कोटि का। हसित, अपहसित आदि अन्य कोटियों का इन्हीं दोनों में अंतर्भाव मान लेना चाहिए। मृदुहास के दो भी किए जा सकते हैं, एक है गुप्त हास जिसका आनंद मन ही मन लिया जाता है और दूसरा है स्फुट हास जिसका मुस्कराहट आदि के रूप में अन्य जन भी दर्शन कर सकते हैं। अट्टहास के भी दो भेद किए जा सकते हैं-एक है मर्यादित हास जो हँसनेवाले की परिस्थिति से नियंत्रित रहता है और दूसरा है अमर्यादित हास जिसमें परिस्थिति सापेक्षता का भान नहीं रहता। हास्य के भेदों का यह विवेचन संभवत: अधिक वैज्ञानिक होगा
वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का बहुत विस्तार हुआ है। इस युग में पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। प्रमुख हैं नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध। इन सभी विधाओं में हास्यरस के अनुकूल प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखा गया और लिखा जा रहा है। प्रतिभाशाली लेखकों ने पद्य के साथ ही गद्य की विविध विधाओं में भी अपनी हास्यरसवर्धिनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
इस युग के प्रारंभिक दिनों के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार हैं भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र। इनके नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति”, “अंधेर नगरी” आदि उनकी हास्य कृतियाँ हैं। उनका “चूरन का लटका” प्रसिद्ध है। उनके ही युग के लाला श्रीनिवास दास, प्रतापनारायण मिश्र, राधाकृष्णदास, प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट आदि ने भी हास्य की रचनाएँ की हैं। प्रतापनारायण मिश्र ने “कलिकौतुक रूपक” नामक सुंदर प्रहसन लिखा है। “बुढ़ापा” नामक उनकी कविता शुद्ध हास्य की उत्तम कृति है।
उस समय अंग्रेजी राज्य अपने गौरव पर था जिसकी प्रत्यक्ष आलोचना खतरे से खाली नहीं थी। अतएव साहित्यकारों ने, विशेषत: व्यंग्य और उपहास का मार्ग ही पकड़ था और स्यापा, हजो, वक्रोक्ति, व्यंगोक्ति आदि के माध्यम से सुधारवादी सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न किया था।
भारतेंदुकाल के बाद महावीरप्रसाद द्विवेदी काल आया जिसने हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यंजना प्रणालियों का कुद और अधिक परिष्कार एवं विस्तार किया। नाटकों में केवल हास्य का उद्देश्य लेकर मुख्य कथा के साथ जो एक अंतर्कथा या उपकथा (विशेषतः पारसी थिएट्रिकल कंपनियों के प्रभाव से) चला करती थी वह द्विवेदीकाल में प्रायः समाप्त हो गई और हास्य के उद्रेक के लिए विषय अनिवार्य न रह गया। काव्य में “सरगौ नरक ठेकाना नाहिं” सदृश रचनाएँ सरस्वती आदि पत्रिकाओं में सामने आई। उस युग के बावू बालमुकुंद गुप्त और पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी हास्यरस के अच्छे लेखक थे। प्रथम ने “भाषा की अनस्थिरता” नामक अपनी लेखमाला “आत्माराम” नाम से लिखी और दूसरे सज्जन ने “निरंकुशता-निदर्शन” नामक लेखमाला “मनसाराम” नाम से। दोनों ने इन मालाओं में द्विवेदी जी से टक्कर ली है और उनकी इस नोकझोंक की चर्चा साहित्यिकों के बीच बहुत दिनों तक रही। बालमुकुंद गुप्त जी का शिवशंभु का चिट्ठा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी का कछुवा धर्म, मिश्रबंधु और बदरीनाथ भट्ट जी के अनेक नाटक, श्री हरिशंकर शर्मा के निबंध, नाटक आदि, गंगा प्रसाद श्रीवास्तव और उग्र जी के अनेक प्रहसन और अनेक कहानियाँ, अपने अपने समय में जनसाधारण में खूब समादृत हुई। जी. पी. श्रीवास्तव में उलटफेर, लंबी दाढ़ी आदि लिखकर हास्यरस के क्षेत्र में धूम मचा दी थी, यद्यपि उनका हास्य उथला उथला सा ही रहा है। निराला जी ने सुंदर व्यंगात्मक रचनाएँ लिखी हैं और उनके कुल्ली भाठ, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, कुकूरमुत्ता आदि पर्याप्त प्रसिद्ध है। पं. विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक निश्चय ही ‘विजयानंद दुबे की चिट्ठियाँ’ आदि लिखकर इस क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रसिद्धिप्राप्त हैं। शिवपूजन सहाय और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने “हास्यरस के साहित्य की अच्छी श्रीवृद्धि की है। अन्नपूर्णानंद वर्मा को हम हास्यरस का ही विशेष लेखक कह सकते हैं। उनके “महाकवि चच्चा”, “मेरी हज़ामत,” “मगन रहु चोला”, मंगल मोद”, “मन मयूर” सभी सुरुचिपूर्ण हैं।
वर्तमान काल में उपेंद्रनाथ अश्क ने “पर्दा उठाओ, परदा गिराओ” आदि कई नई सूझवाले एकांकी लिखे हैं। डॉ॰ रामकुमार वर्मा का एकांकी संग्रह “रिमझिम” इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया है। उन्होंने स्मित हास्य के अच्छे नमूने दिए हैं। देवराज दिनेश, उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, प्रभाकर माचवे, जयनाथ नलिन, बेढब बनारसी, कांतानाथ चोंच,” भैया जी बनारसी, गोपालप्रसाद व्यास, काका हाथरसी, आदि अनेक सज्जनों ने अनेक विधाओं में रचनाएँ की हैं और हास्यरस के साहित्य को खूब समृद्ध किया है। इनमें से अनेक लेखकों की अनेक कृतियों ने अच्छी प्रशंसा पाई है। भगवतीचरण वर्मा का “अपने खिलौने” हास्यरस के उपन्यासों में विशिष्ट स्थान रखता है। यशपाल का “चक्कर क्लब” व्यंग्य के लिए प्रसिद्ध है। कृष्णचंद्र ने “एक गधे की आत्मकथा” आदि लिखकर व्यंग्य लेखकों में यशस्विता प्राप्त की है। गंगाधर शुक्ल का “सुबह होती है शाम होती है” अपनी निराली विधा रखता है।
राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंद दास, श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, डॉ॰ बरसानेलाल जी, वासुदेव गोस्वामी, बेधड़क जी, विप्र जी, भारतभूषण अग्रवाल आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में साहित्य के इस उपादेय अंग की समृद्धि की है।
अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के “सुभाषित आणि विनोद” नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, “गुलिवर्स ट्रैवेल्स” का, “डान क्विकज़ोट” का, सरशार के “फिसानए आज़ाद” का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।