हालातों का पीर
हम अंजान थे इन हालातों के पीर से ।
चश्मा उतरते ही रूबरू हुए तस्वीर से ।
उड़े हम भी खुले आसमाँ में बहुत तेज,
भूल ये भी गए बंधे है वक्त की जंजीर से ।
मिश्ल -ए- फूल थी कई जिन्दगानियाँ यहाँ ,
काँटो के बीच बस मुस्कुराते रहे शरीर से ।
दिखावे का राजमहल जो चमकता था रोज,
उसे धोया गया था किसी के चक्षु नीर से ।
खुद खुदा बन कर्म पर यकीं कर सायक ,
तेज आगे निकल इस निष्ठुर तकदीर से ।
✍️ जय श्री सैनी ‘सायक’