हाय रे ठंडी!
हाय रे ठंडी !
हाय रे ठंडी ! हाय-हाय सर्दी !
कब तक तेरा जुल्म चलेगा, कब तक तेरी चलेगी मर्जी ?
हैं चमचे तेरे ऊनी कपड़े, शाल और स्वेटर, जैकेट सारे
सब उछल पड़े बक्से से बाहर, अब तक जो गुमनाम छिपे थे,
बस तेरे आने से पहले।
साथी तेरे रजाई-कंबल, उनमें भी अब खींचा-तानी ख़ुश हैं बेहद आने से तेरे, बाजार गरम करते मनमानी,
हाय रे ठंडी! हाय-हाय सर्दी!
अपनी तुझे है इतनी चिंता, दुश्मन से भी गले मिल रही
ताप यंत्रों * का बाजार गरम है, तूं ही इनका भला कराती
वे तो तेरे दुश्मन ठहरे, फिर भी इनका तूं नफ़ा कराती
खुद बने रहने की खातिर, उल्टा गुणा-भाग है करती
तुम भी ख़ुदग़र्ज़ इंसानों जैसे, तेरी है बेशक खुदगर्ज़ी हाय रे ठंडी ! हाय-हाय सर्दी !
सकल सरीसृप भू के अंदर, झींगुर, तिलचट्टे गायब हैं
इक्के दुक्के मशक दिख रहे, मात्र तेरी अगवानी में
दुनिया छिपी रजाई में है, काम-धाम तो क्या होगा !
काम रह गया सोना-खाना, कभी जो निकले धूप तापना
तुझे कहां नववर्ष ही भाया, दिखी हमें तेरी अलगरजी।
हाय रे ठंडी ! हाय हाय सर्दी !
आया है जो जाएगा भी, लगा हुआ नित आना-जाना
खुश न हो, जाओगी जल्दी, बहुत हुई तेरी बेदर्दी
पूरे बरस फिर बैठ कर रोना, कैसी अब तुझसे हमदर्दी !
हाय रे ठंडी ! हाय-हाय सर्दी !
***********************************************************
–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित ।
*तापयंत्र = हीटर।