हाथों ढोते रेत
जाने कितनी बार ही , धँसा मिला ये पाँव ।
जीवन के इस विषम से , लगा नहीं है दाँव ।।
जगह-जगह ही थी खुदी , खाई बिलकुल श्वेत ।
विष पलते इस हृदय में , हाथों ढोते रेत ।
छोड़ी कोमल तंतुए , बने खुरदुरे प्रेत ।
करे असंभावित कथा , रहा कौन अब चेत ।।
बज ढफली ढब-ढब रही , पोला है व्यवहार ।
बच-बच के हम हैं चले , हो न गले का प्यार ।।
काटे पल छिन पल रहे , बीती लम्बी राह ।
रखते धूल धूसर तन , हुए नहीं बस शाह ।।
अपने मन की पीर को , लिया हमेशा जीत ।
बातों ही बातों उसे , समझा जब से मीत ।।
कोई दिल के दर्द से , रहा नहीं अंजान ।
जब भी जीवन पंख से , ऊँची भरी उड़ान ।।
डा. सुनीता सिंह “सुधा “शोहरत
स्वरचित सृजन
25/8/2020
वाराणसी