हाइकु – डी के निवातिया
हाइकु
ऊँघती धरा,
भरे जो अंगड़ाई,
क्रूर क्रंदन !!
रात दुल्हिन,
सितारों की चादर
ओढ़ के सोये !!
चाँद कुँवारा,
छत पर निहारे,
रात की रानी !!
खेत की मेढ़,
बनाकर पगड़ी
धारे कृषक !!
ओस की बूँद
ललाट सजाकर,
रिझाते पुष्प !!
अंको की वर्षा,
खुशियों से भिगोती,
विधार्थी मन !!
बसंत राग,
जाता है जब फाग,
झूमती धरा !!
मधुमास में,
गुर्राते घन करें
अठखेलियां !!
टूटते गिरी,
उफनती नदियां
रोष जताते !!
बैलो के संग,
स्वयं को भी हाँकता,
बूढ़ा किसान !!
स्वरचित मौलिक
हाइकुकार : डी के निवातिया