हाँ सदा मैं स्तिथि अनुसार लिखती हूँ
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गीत
गीत गज़लें ही भले दो चार लिखती हूँ।
हाँ सदा मैं स्थिति अनुसार लिखती हूँ।।
सुख व दुख के चक्रव्यूहों से निकल आगे।
खूबसूरत सपनों का संसार लिखती हूँ।।
कोई जब रहने लगे ख्वाबों ख्यालों में।
या मैं खो जाउँ प्रकृति की बहारों में।
प्रेममय मन हो तभी श्रंगार लिखती हूँ।।
हाँ सदा मैं…………………
माँ पिता को भूल बैठे गाड़ी बंगलों में।
खेतों को जो छोड़ देते पानी गमलों में।
ऐसे बेटों को सदा धिक्कार लिखती हूँ।।
हाँ सदा मैं……………….
संत बनकर देह का व्यापार करते हैं ।
मासुमों के साथ अत्याचार करते हैं।
तब घृणित भावों से बस अंगार लिखती हूँ।।
हाँ सदा मैं…………….
आदतन जो दिन गँवाते चुगली चाँटी में।
और जो रसपान करते हैं बुराई में।
उन सभी को मानसिक बीमार लिखती हूँ।।
हाँ सदा मैं…………….
कर सदा शुभ आचरण सिखलाती रामायण।
ज्ञान गीता का छुड़ा देता है आकर्षण।
धार्मिक ग्रँथों से यह साभार लिखती हूँ।।
हाँ सदा मैं………………..
मैं पहुँच जाती कहीं भी कल्पनाओं से।
और हर पहलू छुआ सम्वेदनाओं से ।
इस जमीं से आसमा के पार लिखती हूँ।।
हाँ सदा ………….
जो बहिन बेटी बहु को मान देते हैं।
ज्योति गैरों को उचित सम्मान देते हैं।
उन सभी का हार्दिक आभार लिखती हूँ।।
हाँ सदा…………..
श्रीमती ज्योति श्रीवास्तव