“हलषष्ठी/ललही छठ”
“हलषष्ठी/ललही छठ”
हलषष्ठी छठ जिसे ललही छठ के नाम से भी जाना जाता है। यह पुत्र पौत्रादि के कामना का पावन पर्व है। इस पूजन का आधार अति पुरातन है जो पूर्वांचल के साथ ही साथ अनेक जगहों का एक श्रद्धा युक्त त्योहार है। जिसे भाद्रपद कृष्ण पक्ष षष्ठी तिथि को विधि विधान से पुत्रवती स्त्रियों द्वारा किया जाता है। इस पर्व परंपरा पर नजर डालें तो मानव का प्रकृति के साथ का अजेय रिश्ता इस पर्व में हूबहू झलकता है जो यह उजागर करता है कि हमारे पूर्वज प्रकृति को पूजने का कोई मौका अपने हाथ से जाने नहीं देते थे। जिन परमपराओं का उसी रूप में आज भी हम कुछ लोग सम्मान और श्रद्धा से निर्वहन कर पूर्वजीय प्रणाली से जुड़े हुए है। कुछ आधुनिक नजरें इसे अजीब दृष्टि से देखती हैं और तर्कविहीन आलोचनाएं भी करती हैं जिन्हें शायद रंगीन नजारों से तो प्यार है पर लता पता की हरियाली में उन्हें विषधर कीटाणु दिखाई देते हैं।
खैर, आज के ही दिन हल मूसल धारी श्री बलराम जी का जन्म हुआ था। किवदंती यह भी है कि जनक दुलारी माता सीता जी का जन्म दिवस भी इसी तिथि, यानी आज ही के दिन है। जैसा कि बलराम जी का मुख्य शस्त्र हल और मूसल है, जिसके कारण उन्हे हलधर कहा जाता है, इसी आधार पर इस पर्व का नाम हलषष्ठी पड़ा हुआ होगा। मान्यता है कि पुत्रवती स्त्रियां ही इस व्रत को करती हैं। इस दिन महुए की दातुन करने का विधान है। पारण के समय हल से जोता बोया गया अन्न, फल ग्रहण करना वर्जित माना गया है। संभवतः इसी कारण इस व्रत का पूजन करने वाली स्त्रियां तिन्नी के चावल का सेवन करती हैं। इस दिन गाय का दूध भी वर्जित है पर भैंस का दूध प्रयोग में लाया जाता है, जिसकी विशेषकर व्यवस्था भी की जाती है। विधि.विधान से प्रातः स्त्रियां स्नान करती हैं जिसमें महुआ का दातून किया जाता है और केश को दही से धोया जाता है इत्यादि। तत्पश्चात्य भूमि लीपकर एक कुण्ड में कुश गाड़कर पूजा शुरू की जाती है कुशा के अलावां कहीं कहीं बेरी, पलाश, गूलर इत्यादि की टहनियों को भी प्रयोग में लिया जाता हैं। पूजन में तिन्नी का चावल महुआ दही इत्यादि को छः महुआ के पत्ते पर षष्ठी माता को अर्पित किया जाता है। धूप दीप नैवेद्य के साथ गौरी गणेश की स्थापना कर हल्दी से रंगा हुआ या पीला वस्त्र या साड़ी और हर प्रकार के सुहाग श्रृंगार का सामान चढ़ाया जाता है। कहीं कहीं सतनजा (गेहूं, चना, धान, मक्का, अरहर, ज्वार, बाजरे) आदि का भुना हुआ लावा भी चढ़ाया जाता है। पूजन परांत इस पावन मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए—
गंगा द्वारे कुशावर्ते विल्वके नील पर्वते। स्नात्वा कनरबले देवि हर लब्धवती पतिम्।।
हे देवी ! आपने गंगा द्वारा कुशावर्त विल्वक नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान कर के भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य को देने वाली ललिता देवी आपको बार-बार नमस्कार है। आप मुझे अचल सुहाग और सुंदर पुत्र दें,………ॐ जय माँ, ॐ नमः शिवाय…….!
इसमें माँ की महिमा से ओतप्रोत की कथा और कहानी का कहन और श्रवण हितकर माना जाता है जिसमें स्त्रियाँ आपस में उसी स्थान पर छः कहानियों को कहती सुनती हैं व प्रसाद लेकर अपने अपने घर को प्रस्थान करती हैं। पूरे दिन उपवास करती हैं अजोत खेत का फल, तिन्नी का चावल, दही इत्यादि अल्पाहार लेकर दूसरे दिन दान-पूजन के बाद पारणा करती हैं
व्रत कथा—
पुरातनी कथा है कि एक नेक दिल ग्वालिन थी। जिसका निर्मल मन और शुद्ध दूध दही पूरे गाँव में चर्चित विषय था। तर त्योहार पर हर लोग वहीं से गोरस लाकर पूजा पाठ किया करते थे। प्रत्येक वर्ष हलषष्ठी के दिन वह ग्वालिन सभी को मुफ्त में पूजा निमित्त दूध दही दिया करती थी। धन-धान्य, पति-पुत्र से सुखी ग्वालिन अपने धर्म-कर्म पर सदैव अग्रसर रहती थी और परिवार दिन-रात प्रगति के पथ पर अग्रसर था। उसके पुत्र की शादी बड़े ही धूमधाम से हुई और सुंदर सी बहू का आगमन हुआ। कुछ वर्ष बाद बहू को लगा कि उसकी सासु मुफ्त में जो दूध दही बाँट रही हैं वह गलत है इससे बहुत ही आर्थिक नुकशान हो रहा है इसे बंद ही करना पड़ेगा। उसने अपने सासू से कड़ें शब्दों में कह दिया कि आप यह धर्मादा बंद करें, अब आप बूढ़ी हो गईं हैं मालिकाना हक अब मेरे पास है। इस वर्ष हलषष्ठी के त्योहार पर जो पैसा देगा उन्हीं को गोरस दिया जाएगा। बहू के इस के इस कठोर व अप्रत्याशित निर्णय से उसे आघात तो लगा पर समय का सम्मान करते हुए वह मूक सहमति देने को विवश हो गई और बहू की जीत हो गई।
समय अपनी गति पर चलते हुए उस दिन आकर रुक गया जब ग्वालिन के घर लोगों का हलषष्ठी के निमित्त दूध लेने का हर्षित आगमन शुरू हुआ। उदास मन से ग्वालिन ने सबसे हाथ जोड़कर कह दिया कि अब मालकिन मेरी बहू है जो बिना पैसे के दूध न देने का निर्णय लिया है। आप लोग पैसे देकर दूध ले जाएं और अपनी पूजा सम्पन्न करें। लोगों ने इस विवसता को भाँप कर कीमत अदायगी कर खुशी मन से दूध लिए और ग्वालिन का आभार मानकर अपनी पूजा में लीन हो गए।
रात बीती तो पता चला कि ग्वालिन के सभी जानवर बीमार हो गए हैं एकाध की साँस भी रुक गई है। तरह-तरह की बातों से गाँव चर्चित हो गया। सबने एक स्वर में यही कहा कि प्रचलन में अवरोध हुआ इसी लिए यह दशा हुई है, ग्वालिन के नेकदिली को आघात लगा है उसकी बहू ने उचित नहीं किया। फिर ग्वालिन ने गाँव से सिफारिश किया कि मेरे कहने पर आप लोग फिर से माँ हलषष्ठी की कल पुनः पूजा करें और मुफ्त में गोरस ले जाएं ताकि मेरे परिवार का कल्याण हो। मेरे बहू को क्षमा करें अभी वह नादान है। फिर से माँ की पूजा उसी विधान से हुई और सब कुछ सामान्य हो गया। ग्वालिन और उसके जानवर सब स्वस्थ हो गए जो अभिशप्त हो गए थे और बीमार पड़ गए थे। प्रेम से बोलिए माँ हलषष्ठी देवी की जय।
महातम मिश्र ‘गौतम’ गोरखपुरी