हर रोज जल रहीं हैं बस्तियां
हर रोज जल रहीं हैं बस्तियां
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हर रोज जल रहीं हैं बस्तियां,
अहम में मिट रही है हस्तियां|
गहरे होने लगे दरिया के छोर,
तट पर डूब रहीं हैं किश्तियां|
जिंदगी में भाग-दौड़ बढ़ रही,
अब लोप हो रहीं हैं मस्तियां|
बेटियां यूं लोभ में हैं जल रहीं,
यूं कम पड़ रही हैं सिसकियां|
बेड़ियों में बढ़ रही हैं मु्श्किलें,
पर ढ़ीली पड़ रही हैं रस्सियां|
आग के आगोश में मनसीरत,
लपटों में मच रहीं हैं झुग्गियां|
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)