हर बूँद भैरवी है – हर बूँद है मल्हार
तेरा भी खेल निराला है
भरा आसमान है बादल से
दिन में भी आसमान काला है ‘
टपकती बारिश की हर बूंदसंगीत है ,
जो बैठे हैं आलिशान में
हर बूँद भैरवी है मल्हार है ‘
नज़रें उनकी
भरी गरूर से –
एक ताड़ के मानिंद सिर्फ ऊपर को देखतीं हैं
आँखें उनकी नीचे कहाँ देखती हैं
जहां हमारे घर का चूल्हा भीगा है
‘टपकती छत से ये बूँदें
कहर की बौछार है
क्या खेल है सृष्टि का
इस वृष्टि में वो फैलाकर बाहें
जहां बागों में भीगते हैं
सिकुड़ कर गुजरती हमारी जिंदगी
अतुल “कृष्ण”