हम (लघुकथा)
हम (लघुकथा)
पता नही कब से यें गलतफहमी तुम्हारे दिल में अपना अपना घर बना बैठी । चूंकि इस दिल पर तो केवल मैने अपना ही अधिकार समझा था।
तुम्हे ऐसा क्यो लगा कि मेरे रिश्ते सिर्फ मेंरे और तुम्हारे सिर्फ तुम्हारें ही है। क्यो बांट रहे हो इन्हे।
यें तुमने मुझें कहाँ खड़ा कर दिया इन रिश्तो के बीच लाकर मुझे केवल दिल से रिश्ते निभाने आते है। न तो मैं इन्हे कभी ठुकरा सकती हूँ और न ही कभी आंकलन कर सकती हूँ। कि यें मेंरे है या तुम्हारे मुझे तो हर रिश्ते में केवल भाव ही नजर आता है। स्वार्थ कभी नही अपेक्षा करती तो शायद मेरे हाथ केवल दु:ख ही लगता।
फिर तुुम्हारी और से यें उपेक्षा क्यो ??? याद है ! तुम्हे वो सात फेंरे और वो वचन। बस मैं उन्हे आज भी ऐसे ही याद रखती हूँ जैसे श्वास प्रश्वास चलती है।
तुम्हारा ध्यान मुझे हमेंशा घेरे रहता है। तुम भी इसी की तरह हो जाओ ना !
मेरें हर भावों में एहसासों में तुम किसी न किसी रूप मे हमेंशा शामिल रहते हो। परन्तु मैं नही जानती कि मैं कहाँ हूँ दिल में दिमाग़ में या???
जानते हो तुम्हारे मुँह से निकले चन्द तारीफ भरे लफ़्ज मुझमे जीवन का संचार करते है।नवीन शक्ति से ओतप्रोत हो जाती हूँ मै तुम्हारे मधुर शब्दो को सुनकर….
तुम्हारे स्पर्श मात्र से यह चितवन खिल उठता है। याद तुम्हे वो प्रथम स्पर्श तुमने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया था।
और कभी उस हाथ को न…. छोड़ने की कसम खायी थी….
क्योकि उस दिन तुम -तुम नही मैं-मै न होकर हम हो गये थे। तो समझो तुम यें रिश्ते….. केवल मेरे या तुम्हारे नही हमारे
है हमारे समझे !
सुधा भारद्वाज
विकासनगर उत्तराखण्ड