तुम जख्म देती हो; हम मरहम लगाते हैं
तुम अपने अंदाज में
हम अपने अंदाज में
रिश्ते निभाते हैं,
तुम ज़ख्म देती हो
हम मरहम लगाते हैं।
तुम अपने अंदाज में
हम अपने अंदाज में
राहें बनाते हैं,
तुम बंद करती हो
हम खोल देते हैं,
तुम ज़ख्म देती हो
हम मरहम लगाते हैं।
तुम अपने अंदाज में
हम अपने अंदाज में
कसमें खाते हैं,
तुम तोड़ देती हो
हम निभाए जाते हैं,
तुम ज़ख्म देती हो
हम मरहम लगाते हैं।
तुम अपने अंदाज में
हम अपने अंदाज में
इश्क लड़ाते हैं,
तुम छुप के करती हो
हम खुल के करते हैं,
तुम ज़ख्म देती हो
हम मरहम लगाते हैं।
तुम अपने अंदाज में
हम अपने अंदाज में
ख्वाबों को सजाते हैं,
तुम मन में सजाती हो
हम दिल में सजाते हैं,
तुम ज़ख्म देती हो
हम मरहम लगाते हैं।
(स्वरचित)
श्री रमण
बेगूसराय, बिहार