हमारे फ़िल्म और हमारा समाज
फ़िल्म मानव भावनाओं पर आधारित चलचित्र होते हैं, जो समाज या मानव को प्रेरणा देने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। जब हमारे समाज में फिल्मों का पदार्पण हुआ तो समाज उनके आदर्शों से अभिभूत होता रहा और नए नए चलचितों के माध्यम से नई नई मनोरंजक व प्रेरणाप्रद जानकारियां हासिल करता रहा। मन की उद्विग्नता को शांत करने वाले चलचित्रों को देखकर शकून होता था। मन अवसाद से दूर होता था।फिल्मों में जो उपलब्धियां चाहिए वो सब होती थीं। पुराने फिल्मों में प्राकृतिक छटा, कर्णप्रिय ध्वनि, आदर्शता को प्रदर्शित करने वाले भाव व नायक नायिका भी आदर्श होते थे।
वर्तमान समय में आधुनिकता की होड़ में फिल्मों ने अपना रूप बदल लिया है। रोशनी की चकाचौंध व चमकने वाली 3D फिल्में आंखों को चुभने लगी हैं। नायक व नायिका की अश्लील प्रस्तुति समाज को अश्लीलता के कगार पर ला खड़ा किया हैं। समाज को नई दिशा देने वाली पीढ़ी भी भ्रमित हो गयी है। अश्लील गाने व अंग प्रदर्शन हमारी सभ्यता को पश्चिमी सभ्यता में डूबा रहे हैं।
वर्तमान फिल्में आसानी से अपना उद्देश्य बताने में असफल हो रही हैं। फिल्मों में प्रदर्शित प्यार के नए रंग व धोखाधड़ी की प्रस्तुति से एक ओर जहाँ सावधान होने की प्रेरणा मिल रही है वहीं अपेक्षाकृत दूसरी ओर हमारा समाज बुराइयों को अधिक ग्रहण करते हुए नजर आ रहा है। नई नई तकनीकों का प्रयोग फिल्मों में सराहनीय कार्य है जो हमें वैज्ञानिक प्रगति के लिए प्रेरित करता है, परंतु यह तकनीकी समाज को दूषित करने में भी सक्षम सिद्ध हो रही है। अर्धनग्न नृत्य व रास से हमारे राष्ट्र निर्माता बच्चे नैतिकता को भूल रहे हैं। उनमें असमय ही कामुकता देखने को मिलने लगी है।
हमारा समाज ग्राम प्रधान है। गांवों में छोटे आवासों में सपरिवार बैठकर फिल्में देखीं जा रही हैं। उन फिल्मों में परोसी गयी विसंगतियाँ परिवार के सदस्यों में आपसी मर्यादा हनन व सामाजिक नैतिकता को ठेस पहुँचा रही है। फिल्मों में प्रयुक्त चतुरताओं को देखकर आज समाज प्यार में छल, धोखाधड़ी, पति पत्नी लगाव में कमी, देशहित की भावना से छल आदि अनेकों बुराइयां सीख चुका है। विश्व गुरु भारत जैसे आदर्श देश में इस तरह की विषंगति का होना बेहद चिंताग्रस्त/विचारणीय/सोचनीय है। फिल्मों का प्रयोग स्वस्थ मनोरंजन व संस्कारयुक्त ज्ञानवर्धन के होना चाहिए, जिससे समाज का निर्माण हो सकें न कि आदर्शता का पतन ।