हमारी दीवाली दो पैसों वाली
क्या लगती थी दीवाली दो पैसों वाली
उनके होने पर बन जाता था सामान
जब आ जाते थे घर में मेहमान
कुछ नया अनोखा लगता था
आँखों में सपना पलता था
दीवाली के दिन की इच्छा
महीनों पहले जागती थी
नए कपड़े पहनने को दशहरे से ही मचलते थे
कैसे लेंगे, क्या करेंगे इसी में बातें चलती थे
माँ के हाथों की गुझिया, कचोरी और पूरी चलती थी
सुबह सवेरे की रंगोली
कई बार बनती और बिगड़ती थी
छोटी दीवाली बड़ी दीवाली
पूरी दुपहर इन्हीं की बातें चलती थी
दीवाली दो पैसों वाली कितनी खूब सजती थी
वह पटाखों के सपने आँखों में पलते रहते थे
वह ताजमहल की लडियाँ
रंग-बिरंगे फुलझड़ियाँ
वह साँपों की टिकिया
चकरी की वह गल बहिया
अनार के जो फव्वारे आँगन में सबके बहते थे
कुछ खास लगता था
आज भी दीवाली है पर
वह दो पैसों वाली नहीं है
सब में हो रही होड़ा – होडी है
अमेजॉन, स्विग्गी, बिग बॉस्केट
फ्लिपकार्ट, मीशो ने
वह दीवाली ले ली है
मेरी वह दीवाली दो पैसों वाली
मेरी वह दीवाली दो पैसों वाली
– मीरा ठाकुर