हमनवा कोई न था
ग़ज़ल
इक तुम्हारी याद जैसा क़ाफ़िला कोई न था।
बस तुम्हें यूँ छोड़कर अब रास्ता कोई न था।
साथ पल दो पल दिया और कुछ चले भी दूर तक,
पर घने इन गेसुओं सा आसरा कोई न था।
बेकसी थी ज़िंदगी में और उदासी थी बढ़ी,
पर हसीं वो दूसरा तो सिलसिला कोई न था।
दूर हमसे ख़ुद रहे तुम वक्त का था खेल सब,
दो दिलो में वैसे तो अब फ़ासला कोई न था।
क्यों किसी पे भी लुटा दे यूँ सुधा इस जान को,
दिल को मेरे समझे तुम सा हमनवा कोई न था।
डा• सुनीता सिंह “सुधा”
वाराणसी,©®