स्वार्थ
आज स्वार्थ की बलि वेदी पर चढ़ गये रिश्ते नाते।
भाई को भाई मार रहा एक अंश जमीन के खाते।
मां ,बेटी का घर उजाडे़ करती बडी़ चालाकी।
दामाद ना फूटी आंख सुहावे समधि समधन ना भाती।
उधर दहेज की बलि वेदी पर जल जाती है नारी।
मासूम दुल्हिन की गरदन पर चल जाती है आरी।
अब तो और नया एक फैशन मेरी नज़रो में आया।
एक नही दो चार नही अंश अनेक बनाया।
कुछ दिन रखे बाक्स फ्रीज मे फिर जहां तहां बिखरावे।
सुख पाने की खातिर मानव ओर दु:खों की जावे।
कोई प्रेम के चक्कर मे पड़ अपना सुहाग उजाडे़।
स्वर्ग उसी में देखे जब सजा़ मौत की पावे।
अध कचरा एक युवक नशेड़ी पैसा मांगे मां से
नही मिले तो ले एक चाकू मां का गला तराशे।
ये किस्से तो आम हो गये दोस्त – दोस्त को खावे।
अपने स्वार्थ की खातिर मानव ज़रा नही शरमावे।
सदगुरू का लेके आसरा मन को शुध्द बनावे।
हर बन्दे की करो सहायता नज़र जहां तक जावे।