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6 May 2024 · 1 min read

स्वार्थ से परे

मैं फिर खोजती हूंवो बीता बचपन अपना..
जिन आंखों में था कंच जीतने का सपना,
वक्त की धारा में ना जाने कहां खो गया,
जवानी और जिम्मेदारी की तह में दफन हो गया,
काश! मैं बड़ी ना होती,तो मां की गोद में चैन से सोती,
लोरी गाकर वो सुलाती मुझेगर मैं जरा भी रोती,
ना फ़िक्र होती आगे पढ़ने की
ना हसरत होती आगे बढ़ने की,
बस एक ही इच्छा होती बचपना वाले झूले पर चढ़ने की,
पर स्वार्थ से परे जब मैं सोचती हूं
क्यों मैं अपना बचपन खोजती हूं

मेरी मां का भी कोई बचपन था
उसने भी कुछ खोया था,
जिसको मां ने कुर्बान कर

हर वक्त मेरे लिए अपनी आंखों में
मेरे ही सपनों को संजोया था।
– सीमा गुप्ता, अलवर ( राजस्थान)

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